नेपाल में है भगवान पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर, जानिए क्या है भगवान शिव के इस नाम का महत्व

भगवान शिव के अनेक नाम धर्म ग्रंथों में बताए गए हैं। भगवान शिव की अनेक रूपों और नामों से पूजा की जाती है। उन्हीं में से एक नाम है पशुपतिनाथ। भगवान शिव का ये नाम और रूप बहुत ही अनोखा है। इस स्वरूप में एक ही शिला पर भगवान शिव के अनेक मुख दिखाई देते हैं।

उज्जैन. भगवान शिव का एक नाम पशुपतिनाथ है, जिसका अर्थ है कि भगवान शिव चारों दिशाओं में विद्यमान हैं। भगवान पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर नेपाल में स्थित है। संहिताशास्त्रि अर्जुन प्रसाद बास्तोला से जानिए भगवान शिव के पशुपतिनाथ नाम का अर्थ-

पाशवद्ध: सदा जीव: पाश मुक्त: सदा शिव:
भगवान श्री पशुपतिनाथ परब्रह्म शिव के अनादि रूप है। वह “पञ्च वक्रम् त्रिनेत्रम्”नाम से परिचित होते हैं। ॐकार के उत्पत्ति भगवान शिव के दक्षिण मुह से ‘अ’कार, पश्चिम मुंह से ‘उ’ कार, उत्तर मुंह से ‘म’कार, पूर्व मुंह से चन्द्रविन्दु तथा उर्ध्व ईशान मुह से ‘नाद’की उत्पत्ति होकर ॐकार की उत्पत्ति हुई है।

वेद में बताए गए भगवान पशुपति (शिव) के आठों नाम इस प्रकार है 
ॐ महादेवाय चन्द्रमूत्र्तये नम: ।।
ॐ ईशानाय सूर्यमूत्र्तये नम: ।। 
ॐ उग्राय वायुमूत्र्तये नम: ।। 
ॐ रुद्राय ऽग्निमूत्र्तये नम: ।। 
ॐ भवाय जलमूत्र्तये नम: ।। 
ॐ शव्र्वाय क्षितिमूत्र्तये नम: ।।
ॐ पशुपतये यजमानमूत्र्तये नम: ।। 
ॐ भीमाय ऽऽकाशमूत्र्तये नम: ।।
इससे यह बात स्पष्ट हो जाता है कि भगवान आशुतोष शिव से पञ्च तत्व की उत्पत्ति के श्रोत पञ्च वक्र त्रिनेत्र ही हैं। श्री पशुपति नाम ही एक मात्र यजमान मूर्ति और पूजनीय हैं बाकि सब प्रतीकात्मक है। 

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यजुर्वेद में भगवान पशुपतिनाथ का वर्णन 
ॐ भवाय च रुद्राय च नम: शव्र्वाय च पशुपतये च नमो नील ग्रीवाय च शितिकण्ठाय च नम: कपर्दिने । ........ नम: शङ्गवे च पशुपतये च नम: ऽउग्राय च भीमाय च ......... । सद्यो जातम्प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नम: । भवे भवे नाति भवे भवस्वमां भवोद्भवाय नम: । वामदेवाय नमो जेष्ठाय नम: श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नम: कालाय नम: कलविकरणाय नमो बल विकरणाय नमो बलाय नमो बल प्रमथनाय नम: । सर्व भूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नम: । अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्य: सर्वेभ्य: सर्व शर्वेभ्यो नमस्तेऽअस्तु रुद्ररुपेभ्य: । ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि । तन्नो रुद्र प्रचोदयात् । ॐ ईशान: सर्वविद्यानामीश्वर: सर्वभूतानाम् । ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोधिपतिर्ब्रह्म, शिवो मेऽअस्तु सदा शिवोम् । शिवो नामासि स्वधितिस्तं पिता नमस्ते अस्तु मा मा हि () सी: । निवर्तयाम्यायुषेन्नाद्याय प्रजननाय रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय। ॐ यस्य निश्वसितं वेदा यो वेदभ्योऽखिलंजगत्। निर्ममेतमहं वन्दे विद्यातीर्थं महेश्वरम् ।।
महादेवश्चन्द्रो भवती रविरीशान उदित:
श्रुतीवायुश्चोग्रो भवतिहनो रुद्र इति वै।
भवस्तोयं पृथ्वी भवति स हि शर्व:
पशुपतिस्तथात्मा भीम: सं भवति जगदष्टात्मनि शिवे ।।

नेपाल के पशुपतिनाथ प्रांगण में हैं ये प्रतिमाएं भी
नेपाल स्थित भगवान पशुपतिनाथ मंदिर प्रांगण में श्री वत्सला के दर्शन पूजा करने के वाद पुन: जयमंङ्गला, नील और कीर्तिमुख भैरव के शिरोभाग, गणेशजी, शंकरनारायण, सूर्य, विष्णु, कामदेव, अष्टमातृका, नवग्रह, उन्मत्तभैरव, हनुमान, सत्यनारायण, नन्दी, नृत्तेश्वर, वेलवृक्ष, किरांतेश्वर, गुह्यश्वरी, गोरखनाथ, विश्वनाथ, मनकामना, श्रीराम, लक्ष्मीनारायण, राजराजेश्वरी नवदुर्गा, मृगेश्वर, गंगामाई, विरुपाक्ष, वासुकी, भृङ्गी, संतापेश्वर, मुक्तिमण्डल,  राजमुकुट  श्रीपेच (अभी श्री 5 विरेन्द्र ऐश्वर्याच लिखा हुवा सोने का), चण्डेश्वर, बुढानिलकण्ठ, गुप्तेश्वर, कलियुगेश्वर, ब्रह्मनाल आदि दर्शन पूजा करने के वाद ही भगवान पशुपतिनाथ दर्शन पूजा स्वीकार करते हैं।

- पशुपतिनाथ मंदिर के चारों दिशाओं मे अष्ट भैरव तथा उत्तर में दक्षिणकाली की मूर्ति है। मंदिर के ऊपर में षोडश मातृका की मूर्ति है ।
- मंदिर के पूर्व में श्रीकृष्ण परिवार की मूर्ति है। मन्दिर के दक्षिण में श्रीराम परिवार की मूर्ति है। मन्दिर के पश्चिम तरफ पाण्डव परिवार की मूर्ति है।
- मन्दिर के उत्तर तरफ ब्रह्मा, विष्णु आदि भगवान की मूर्तियां है। भगवान पशुपतिनाथ की एक निराकार सहित चार मुंह है।
नेपाल की पशुपतिनाथ के समान लिंग, वाग्मती समान की नदी और गुह्यश्वरी समान की पीठ तीनों लोक में नहीं हैं।
“पशुपति समं लिङ्गं वाग्मत्या च समा नदी।
गुह्यश्वरी समं पीठं नास्ति ब्रम्हाण्ड गोल के।।”(ने.मा.)
“वाग्वत्या सरितेस्तीरे नाम्ना पशुपति: स्मृत:।
ततो ब्रह्मादयो रुद्रमूचु: प्राञ्जलय: सुरा:।।”(ने.मा.पृ.3)

तीन आंख वाले एक सुवर्ण सिंङ्ग मृगरूप भगवान शिवजी को देवताओं ने स्तुति करने पर भी प्रसन्न नहीं होने से देवताओं ने बलपूर्वक मृग की सिंङ्ग पकड और सिंङ्ग चार टुकड होकर महाशिवस्वरुप पशुपतिनाथ हो गये थे।
“स्थितोऽहं पशुरुपेण श्लेष्मान्तकवने यत:। 
अत: पशुपतिर्लोके मम नाम भविष्यति।। 
ये मां पशुपतिं देवा द्रक्ष्यन्ति मनुजा भुवि।
पशुजन्म न तेषां तु मत् प्रसादाद्भविष्यति।।” (ने.म.पृ.2/4)

मैं श्लेष्मान्तक वन में वाग्मती की किनार में पशु रुप में स्थित हो जाऊंगा। और कहीं नहीं जाऊंगा । पशुपतिनाथ मेरा नाम होगा । जो देव गण, मनुष्य गण मेरा दर्शन पूजा करेगा वो कभी पशु योनी में उत्पन्न नही होगा ।
“हिमाद्रिस्तुङ्ग शिखरात प्रोद्भूता वाङ्मती नदी ।
भागीरथ्या शतगुणं पवित्रं तज्जलंस्मतम् ।।”(श.क.द्रु.३१९) तत्रस्नात्वा हरेर्लोका उपस्पृश्य दिवस्यत:।
त्यक्त्वादेहं नरायान्ति ममलोकं न संशय।। (जलेश्वर महात्म्य) अतोऽस्या वाग्वती नाम भविष्यति न संशय।”(ने.म.)
हिम पर्वत से उत्पन्न हुई वाग्मती नदी भागीरथी गंगा से सौ गुणा पवित्र है। इस वाग्मती नदी की जल में स्नान करने से नरदेह त्याग के वाद मेरे लोक में जायेगा शंका नही है भगवान शिवजी ने कहा है ।

इसीलिये भगवान शिव की मुंह से निकले हुए होने से वाग्मती नाम रह गया है इस में कोई शंका नही ।
“तवाङ्गं पतितं गुह्यं वाग्वतीतटिनीतटे । मृगस्थल्या उदोच्यां तु तत् पीठं परमं महत ।। मत्सन्निधौ तेऽन्तिके वा गुह्यशीसन्निधावपि।
ये जपन्ति नरा भक्त्या तेषां सिद्धिर्भविष्यति।।” (ने.म.5)
भगवान पशुपतिनाथ ने माता पार्वती से कहा, तुम्हारा पिछला जनम् सतीदेवी की अंग गुह्य पतन होकर वाग्मती नदी की किनार में मृगस्थली से उत्तर तरफ परम पीठ है, वो मेरे नजदिक रहेगा । उस जगह जो जप, पाठ, पूजा करेगा, उस भक्त को सिद्धि प्राप्त होगा ।
“मम वात्सल्यतो यस्मात् स्थातुमिच्छसि पार्वति । तस्मात् ते वत्सला नाम भविष्यर्ति वरानने ।।
ममाग्नेय्यां सदा तिष्ठ ममाज्ञातो महेश्वरि। वाग्वत्या: पयसि स्नात्वा दृष्ट्वा त्वां वत्सलां शिवे।। द्रक्ष्यन्ति मां नरा ये वै ते स्यु: कैलासगामिन:। मतसन्धिौ तेऽन्तिके वा गुह्यशीसन्निधावपि ।। (ने.म.5)
मेरी सबसे प्यारी होने से हम तुम्हे अपने आग्नेय दिशा में स्थापित करेंगे। तुम्हारा नाम वत्सला होगा। जो वाग्मती नदी में स्नान करके वत्सलेश्वरी की दर्शन करेगा उसे कैलास में मेरे नजदीक मेरे साथ रह पायेगा।
इस तरह भगवान पशुपतिनाथ की पूजा करने के लिये दक्षिण भारत के गृहस्थी द्रविड ब्राह्मण पुजारी की व्यवस्था भी किया गया है ।
“कर्नाटकामहाराष्ट्रा आन्ध्रद्रविडजातिजा: । विन्ध्याद् दक्षिणी जाता: प्रायश्चितं विधाय च: ।। अर्चा पशुपतिश्चैव मरणान्तञ्च पूजयेत् । मृतस्तादृश एवान्यश्चाधिकारी तदा भवेत् ।।”
 

 

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