उज्जैन. दुर्योधन ये अच्छी तरह से जानता था कि अर्जुन का कोई मुकाबला कर सकता है तो सिर्फ कर्ण है। लेकिन इसके बाद भी जब कौरवों और पांडवों में युद्ध शुरू हुआ तो 10 दिन बाद कर्ण युद्ध में शामिल हुए। यानी शुरूआत के 10 दिन तक कर्ण कौरवों की सेना में थे ही नहीं। कर्ण ने ऐसा क्यों किया, जानिए…
इसलिए 10 दिन तक युद्ध में शामिल नहीं हुए कर्ण..
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जब अज्ञातवास खत्म हो गया तो पांडव अपने वास्तविक स्वरूप में आ गए। विराट नगर में ही पांडवों का हित चाहने वाले सभी लोक इकट्ठे हुए। सभी ने मिलकर ये निर्णय लिया कि पांडवों को अपना राज्य फिर से मिलना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले राजा द्रुपद ने अपने एक पुरोहित को दूत बनाकर राजा धृतराष्ट्र के पास भेजा।
पुरोहित ने धृतराष्ट्र को पूरी बात बताई और कहा कि- पांडवों ने वनवास और अज्ञातवास पूरा कर लिया है। इसलिए अब उन्हें उनका राज्य लौटा दीजिए। इसके बाद धृतराष्ट्र ने संजय को अपना दूत बनाकर भेजा। संजय ने युधिष्ठिर से कहा कि- महाराज धृतराष्ट्र युद्ध नहीं शांति चाहते हैं। युधिष्ठिर ने कहा कि- हम भी शांति ही चाहते हैं किंतु यह तभी संभव है जब इंद्रप्रस्थ में मेरा ही राज्य रहे।
श्रीकृष्ण ने कहा कि यदि कौरव पांडवों को सिर्फ पांच गांव भी दे देंगे तो भी युद्ध नहीं होगा। इसके बाद संजय पांडवों का संदेश लेकर हस्तिनापुर आ गए। जब ये संदेश संजय ने भरी सभा में सुनाया तो धृतराष्ट्र, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदि ने इसका समर्थन किया, लेकिन कर्ण और दुर्योधन ने पांडवों के संदेश पर असहमति जताई।
जब धृतराष्ट्र दुर्योधन को समझा रहे थे, तभी कर्ण भरी सभा में बढ़-चढ़कर बातें कहने लगे। कर्ण की ऐसी बातें सुनकर भीष्म पितामाह ने उसे फटकार दिया। भीष्म पितामाह की बातें सुनकर कर्ण को भी क्रोध आ गया।
कर्ण ने कहा कि- अब मैं युद्ध में नहीं आउंगा। जब आपका अंत हो जाएगा, तब मैं पांडवों का नाश कर दूंगा। ऐसा कहकर कर्ण उस सभा से चले गए।
यही कारण था कि जब तक भीष्म कौरवों के सेनापति रहे, कर्ण ने कौरवों को ओर से युद्ध नहीं किया। भीष्म के घायल होने पर ही कर्ण युद्ध भूमि में आए।