13 अखाड़ों से अलग होते हैं ये साधु, एक कान में पहनते हैं नथ दूसरे में कुंडल

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में चल रहे माघ मेले में 13 अखाड़ों के लाखों साधु-संत शामिल हो रहे हैं। वैसे तो संन्यासी परंपरा के अंतर्गत 13 अखाड़ों को ही मान्यता दी गई है, लेकिन एक अखाड़ा ऐसा भी है जो अपने आप में अनूठा है। ये है श्रीदशनाम गोदड़ अखाड़ा।

उज्जैन. इसके साधु भी अन्य अखाड़ों के साधुओं से थोड़े अलग हैं क्योंकि इस अखाड़े में संत दीक्षा से नहीं बल्कि दान से बनते हैं। शैव संप्रदाय के सातों अखाड़ों (जूना, निरंजनी, महानिर्वाणी, आनंद, अटल, आवाहन व अग्नि) से इन्हें शिष्य दान में मिलते हैं, वही गोदड़ अखाड़े की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।

कान के कुंडल और नथ है पहचान
गोदड़ अखाड़े के संतों की पहचान उनके कान से होती है। अखाड़े में शामिल होते ही संत को बाएं कान में भगवान शिव का कुंडल व दाएं कान में हिंगलाज माता की नथ पहनाई जाती है। जिस संत के गुरु जीवित होते हैं वह सोने के आभूषण (नथ व कुंडल) नहीं पहन सकता। सोने की नथ व कुंडल कान में होने का अर्थ है कि उस संत के गुरु की मृत्यु हो चुकी है।

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संतों के अंतिम संस्कार में खास भूमिका
इस अखाड़े की स्थापना ब्रह्मपुरी महाराज ने की थी। यह अखाड़ा शैव संप्रदाय के सातों अखाड़ों से संबंधित है। जहां भी शैव संप्रदाय के अखाड़े हैं, वहां गोदड़ अखाड़ा भी है। गोदड़ अखाड़े के संत शैव संप्रदाय के सातों अखाड़ों (अग्नि को छोड़कर) के मृतक साधुओं को समाधि (जमीन में दफनाना) दिलाते हैं। संतों के अंतिम संस्कार में भी गोदड़ अखाड़े की खास भूमिका होती है। शैव संप्रदाय के अखाड़ो में सिर्फ अग्नि में ही समाधि की परंपरा नहीं है।

प्रणाम करने का तरीका भी विशेष
इस अखाड़े में शिष्य अपने गुरु को विशेष तरीके से प्रणाम करता है। शिष्य पहले अपने गुरु के चरणों में बैठकर ऊंकार (कुछ विशेष मंत्र) बोलता है, उसके बाद अपने दोनों हाथों की उंगलियों से एक विशेष स्थिति में रख गुरु के सामने झुक कर प्रणाम करता है।

चरण पादुका की करते हैं पूजा
गोदड़ अखाड़े में इसकी स्थापना करने वाले ब्रह्मपुरीजी महाराज की चरण पादुका की पूजा करने की परंपरा है। जहां-जहां भी गोदड़ अखाड़े की शाखा है, वहां उनकी पादुका स्थापित है। इस अखाड़े का केंद्र जूनागढ़ (गुजरात) में है। उज्जैन के थोड़ी दूर स्थित ओंकारेश्वर में भी इसकी शाखा है।

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