अनुपम खेर की फिल्म द कश्मीर फाइल्स जब से रिलीज हुई है तभी से सुर्खियों में बनी हुई है। फिल्म में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की कहानी को बयां किया गया है। इस फिल्म को जिसने भी देखा वो दर्द से कहर उठा। इसी बीच फिल्म देखने के बाद एक पाठक, जिनका नाम प्रवीण दुबे ने अपने विचार फेसबुक पोस्ट के जरिए बयां किए है।
मुंबई. अनुपम खेर (Anupam Kher) की फिल्म द कश्मीर फाइल्स (The Kashmir Files) जब से रिलीज हुई है तभी से सुर्खियों में बनी हुई है। फिल्म में कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की कहानी को बयां किया गया है। इस फिल्म को जिसने भी देखा वो दर्द से कहर उठा। इसी बीच फिल्म देखने के बाद एक पाठक, जिनका नाम प्रवीण दुबे ने अपने विचार फेसबुक पोस्ट के जरिए बयां किए है। उन्होंने फिल्म देखने के नाम पोस्ट में लिखा- कल देर रात वाला शो #TheKashmirFiles का मैंने निपटा दिया.. फिल्म ऐसी हाउसफुल चल रही है कि रात दस बजे के शो में भी बमुश्किल एक टिकिट मिल पाया था..खैर.. दहला देने वाली, सोचने को बाध्य करने वाली फिल्म है। कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के बारे में सिर्फ पढ़ा था और बहुत सारा Rajesh Raina सर की जुबानी सुना था। उन्होंने भी विस्थापन का ये दर्द झेला है.. उनसे कहानियां सुनते वक्त भी रोंगटे खड़े हो जाते थे... फिर जब उसे बड़े परदे पर देखा, तो दर्द और दहकता हुआ सा महसूस हुआ..। आपको बता दें कि फिल्म ने हफ्तेभर में करीब 97 करोड़ रुपए की कमाई कर ली है और जल्द ही ये 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो जाएगी।
आखिर क्यों होता है ऐसा
उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए लिखा- ''मुझे हैरत है कि इस फिल्म को लेकर एक पूरा वर्ग विरोध करने में क्यों जुटा है.. यदि थिएटर में देश के गद्दारों के खिलाफ नारे लगते हैं, तो एक कौम विशेष क्यों उसे अपने ऊपर हमला मान लेती है। सारी कौम को तो गद्दार नहीं कहा जा रहा... वीरप्पन की क्रूरता पर फिल्म बने या यूपी के विकास दुबे पर बने, तो उनकी जाति से जुड़े लोगों को इतना कष्ट नहीं होगा क्योंकि जो बुरा है, वो बुरा है.... बुरे की कोई जात नहीं होती... इस फिल्म को लेकर बने माहौल से ऐसा प्रचारित हो रहा है, जैसे ये देश के मुसलमानों के खिलाफ उकसा रही है.. अरे जब आप अपनी फिल्म में कहते हैं 'माय नेम इज खान एंड आई एम नॉट ए टेरेरिस्ट' तो देश की बहुसंख्य आबादी आपके साथ मिलकर यही दोहराती है... फिर कश्मीरी पंडितों का दर्द जब फिल्माया जाए, तो आपसे भी ऐसी ही उम्मीद क्यों नहीं करना चाहिए...? कृष्णा पंडित बने दर्शन कुमार की आखिरी की पूरी स्पीच से मैं सहमत हूं। कश्मीर या कोई भी शहर क्यों आक्रांताओं की पहचान को ढोता रहे... वो जो उसकी पहचान कभी थी ही नहीं बल्कि उसके ऊपर बला लादी गई है.. इस देश में आज भी कितने प्रतिभाशाली मुसलमान हर फील्ड में हैं और उनको सिर आंखों पर बैठा कर रखा है लोगों ने.. ये फिल्म सिर्फ एक घटना का त्रासद सच सामने ला रही है, तो मुझे नहीं लगता कि पूरी कौम को इस पर हाय तौबा मचाना चाहिए..।''
उन्होंने आगे लिखा- ''जहां तक फिल्मांकन का सवाल है तो कुछ चूक हैं इसमें.. कहीं -कहीं लंबी खिंचती हुई सी लगेगी... एक रिवॉल्वर से 25 गोली दनादन निकलवाने की गलती आज के दौर का कोई निर्देशक कैसे कर सकता है...किसी के अभिनय में कमी या भाव भंगिमाओं में वो सहजता ना आने पर बात हो सकती है लेकिन कथानक को लेकर इतना हल्ला मचाने की जरूरत कतई नहीं है...ये बिलकुल भी एकतरफा नहीं है, संवादों के जरिए दूसरे पक्ष को, जो वाकई हत्यारे हैं, उन्हें भी जस्टिफाई करने की कोशिश इस फिल्म में दिखती है.. जिन्हें ये फिल्म बुरी लगी हो तो लगी हो लेकिन मुझे तो झकझोरने वाली लगी और यही इस फिल्म की सफलता भी है कि दर्शकों का तादाम्य उसके साथ बनता रहे..।''
नोट कॉन्टेन्ट साभार - प्रवीण दुबे के फेसबुक वाल से शब्दशः
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