गरीबी के कारण छोड़नी पड़ी थी पढ़ाई, अब 13 साल से चला रहे हैं फ्री स्कूल

रोज-रोज बसने उजड़ने वाला यह स्कूल 300 बच्चों की हंसी और मुस्कुराहट की वजह है जो तमाम मुश्किलों से लड़ते हुए यहां आते हैं। 

नई दिल्ली. गरीबी और अन्य परिस्थितियों के कारण वंचित बच्चों के जीवन में शिक्षा की मिठास भरने के लिए लक्ष्मी नगर में रहने वाले एक दुकानदार यमुना बैंक इलाके में मेट्रो पुल के नीचे एक स्कूल चलाते हैं। रोज-रोज बसने उजड़ने वाला यह स्कूल 300 बच्चों की हंसी और मुस्कुराहट की वजह है जो तमाम मुश्किलों से लड़ते हुए यहां आते हैं। राजेश कुमार शर्मा का यह फ्री स्कूल अंडर द ब्रिज (पुल के नीचे नि:शुल्क स्कूल) 2006 से चल रहा है।

13 साल पहले हुई थी स्कूल की शुरुआत 
मूल रूप से उत्तर प्रदेश में हाथरस के रहने वाले शर्मा लक्ष्मी नगर में एक किराने की दुकान चलाते हैं। उन्होंने 13 साल पहले महज दो बच्चों के साथ अपने स्कूल की शुरुआत की थी। शर्मा को खुद गरीबी के कारण अपनी पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी थी। इस बात का दुख उन्हें आज भी है। इसलिए जब यमुना बैंक इलाके में घूमते हुए उन्होंने बच्चों को बिना शिक्षा के भटकते देखा तो उनके माध्यम से अपने सपने को जीने का फैसला किया।

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दो शिफ्ट में चलता है स्कूल 
शर्मा (49) अपना स्कूल दो पालियों में चलाते हैं। सुबह 9-11 बजे तक लड़कों के लिए जिसमें 120 छात्र हैं। दोपहर दो बजे से शाम साढ़े चार बजे तक लड़कियों के लिए जिसमें 180 छात्राएं हैं। चार साल से 14 साल तक के इन बच्चों को शर्मा अकेले नहीं पढ़ाते हैं। आसपास के लोग भी उनकी मदद करते हैं। वे अपने खाली समय में आकर बच्चों को पढ़ाते हैं, उनके साथ सात ऐसे शिक्षक स्थाई रूप से जुड़े हुए हैं।

बच्चों की मुस्कुराहट ही है फीस 
वैसे तो स्कूल सड़क के शोरगुल से दूर है, और हर पांच मिनट पर आती मेट्रो ट्रेन की आवाज बच्चों को महसूस तक नहीं होती। वे तो अपने सीमित संसाधनों वाले स्कूल में खुश हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे जमीन पर बोरियां बिछाकर बैठते हैं और सामान के नाम पर उनके पास सिर्फ पांच ब्लैकबोर्ड हैं। शर्मा के साथ जुड़े शिक्षक... लक्ष्मी चन्द्र, श्याम महतो, रेखा, सुनीता, मनीषा, चेतन शर्मा और सर्वेश बताते हैं कि वे अपने खाली समय में बच्चों को पढ़ाते हैं और उनकी मुस्कुराहट ही उनकी फीस है।

जन्मदिन मनाने भी आते हैं युवा 
शर्मा का कहना है कि उनके पास कभी कोई सरकारी प्रतिनिधि मदद की पेशकश लेकर नहीं आया। हां शुरुआत में कुछ एनजीओ जरुर आए थे, लेकिन उनमें से कोई सही नहीं लगा। वे लोग कहते कुछ और और करते कुछ और थे। उन्हें बच्चों की मदद करने से नहीं बल्कि उनके जरिए पैसे कमाने से मतलब था। उनका कहना है कि हमें सिर्फ आसपास के लोगों से कुछ सहायता मिलती है। वह भी धन या स्कूल के सामान के रूप में नहीं। लोग यहां आते हैं खाने का सामान बांटने, कभी-कभी युवा अपना जन्मदिन मनाने आ जाते हैं।

मौसम की मार से प्रभावित होती हैं कक्षाएं
स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के चेहरों पर खुशियां लाने के लिए यह काफी होता है। उन्हें भी लगता है कि भले ही वे गरीब हैं, उनके पास मकान और गाड़ियां नहीं हैं, लेकिन वे भी समाज का हिस्सा हैं। मौसम की मार छोड़ दें तो शर्मा बिना किसी नागा के अपना स्कूल चलाते हैं। वह न सिर्फ बच्चों की पढ़ाई का ख्याल रखते हैं बल्कि उनकी उपस्थिति, अनुपस्थिति और उससे जुड़े कारणों पर भी गौर करते हैं। अगर कोई बच्चा बिना किसी वजह के ज्यादा दिन स्कूल नहीं आता तो शर्मा उससे और उसके परिवार से मिलते हैं और उनकी समस्याएं सुलझाते हैं।
(यह खबर न्यूज एजेंसी पीटीआई भाषा की है। एशियानेट हिंदी की टीम ने सिर्फ हेडलाइन में बदलाव किया है।)

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