33 साल पहले के वो 40 मिनट, जिसमें कोर्ट का फैसला आया, सरकार ने माना और मीडिया के सामने खुला ताला

सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद पर आज फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पांच जजों की बेंच ने इस मामले में 40 दिन में 172 घंटे तक की सुनवाई की।

नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जमीन विवाद पर आज फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता में पांच जजों की बेंच ने इस मामले में 40 दिन में 172 घंटे तक की सुनवाई की। बेंच में जस्टिस एस ए बोबडे, जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस एस ए नजीर भी शामिल हैं। इस मौके पर हम आपको 33 साल पहले का वह वाक्या बता रहे हैं, जब सिर्फ 40 मिनट में ही कोर्ट ने फैसला सुनाया, इसी वक्त के भीतर इसे सरकार ने माना और मीडिया के सामने मंदिर का दरवाजा खोला गया। 

अयोध्या में 1 फरवरी 1986 को विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश फैजाबाद के जिला जज देते हैं। राज्य सरकार चालीस मिनट के भीतर उसे लागू करा देती है। शाम 4.40 पर अदालत का फैसला आया। 5.20 पर विवादित इमारत का ताला खुला।

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1949 में कुछ लोगों ने विवादित स्थल पर भगवान राम की मूर्ति रख दी और पूजा शुरू कर दी, इस घटना के बाद मुसलमानों ने वहां नमाज पढ़ना बंद कर दिया और सरकार ने विवादित स्थल पर ताला लगवा दिया था।

सिर्फ 40 मिनट में सरकार ने माना कोर्ट का आदेश

हेमंत शर्मा की किताब 'युद्ध में अयोध्या' के मुताबिक, अयोध्या में 1 फरवरी 1986 को विवादित इमारत का ताला खोलने का आदेश फैजाबाद के जिला जज देते हैं। राज्य सरकार चालीस मिनट के भीतर उसे लागू करा देती है। शाम 4.40 पर अदालत का फैसला आया। 5.20 पर विवादित इमारत का ताला खुला। अदालत का ताला खुलवाने की अर्जी लगाने वाले वकील उमेश चंद्र पांडेय भी कहते हैं, ''हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि सब कुछ इतनी जल्दी हो जाएगा।"

पहले से ही दूरदर्शन की टीम थी मौजूद

शर्मा लिखते हैं कि दूरदर्शन की टीम पहले से पूरी प्रक्रिया को कवर करने के लिए वहां मौजूद थी। उस वक्त और कोई दूसरा चैनल नहीं था। लखनऊ से दूरदर्शन की टीम फैजाबाद पहुंची थी। जबकि लखनऊ से फैजाबाद पहुंचने में 3 घंटा लगता है। यानी टीम कोर्ट के फैसले से पहले ही मौजूद थी।

कौन था फैसले के पीछे?:

हेमंत शर्मा के मुताबिक, ताला खुलवाने का फैसला सोची समझी राजनीति के तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने लिया था। दरअसल, राजीव गांधी ने यह फैसला शाहबानो मामले में नाराज बहुसंख्यकों को खुश करने के लिए लिया गया था। यह नासमझी भरा पैतरा था। इस पूरे प्रकरण की पटकथा दिल्ली में लिखी गई थी।

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