Supreme Court ने 'काज़ी कोर्ट' और 'शरिया कोर्ट' को लेकर सुनाया बड़ा फैसला, कहा-नहीं है कानूनी मान्यता

Published : Apr 28, 2025, 05:13 PM ISTUpdated : Apr 28, 2025, 05:43 PM IST
Supreme Court of India (File Photo/ANI)

सार

Supreme Court ने 'Court of Kazi', 'Sharia Court' (शरिया कोर्ट) और 'Darul Kaja' जैसे संस्थानों को लेकर स्पष्ट किया कि इनके फैसलों की कोई कानूनी वैधता नहीं है। जानें पूरा मामला और सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय।

Supreme Court on Qazi Court: सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर काज़ी कोर्ट या शरिया कोर्ट को गैर-कानूनी बताया है। कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई करते हुए दोहराया कि 'काजी की अदालत', '(दारुल कजा) काजियात की अदालत', 'शरिया अदालत' आदि, चाहे किसी भी नाम से पुकारे जाएं, कानून में उनकी कोई मान्यता नहीं है और उनके द्वारा दिया गया कोई भी निर्देश कानून में लागू नहीं होता।

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने विश्वलोचन मदन बनाम भारत संघ के मामले में 2014 के फैसले का हवाला दिया। उस फैसले में कहा गया था कि शरीयत अदालतों और फतवों को कानूनी मान्यता नहीं है।

किस मामले में सुनवाई के दौरान कोर्ट ने की टिप्पणी

यह फैसला एक महिला की अपील पर आया जिसने इलाहाबाद हाईकोर्ट (Allahabad High Court) के उस निर्णय को चुनौती दी थी जिसमें फैमिली कोर्ट द्वारा उसे भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया गया था। फैमिली कोर्ट ने अपने फैसले में 'काज़ी कोर्ट' में हुए एक समझौते (Compromise Deed) का हवाला दिया था। महिला और पुरुष की शादी 24 सितंबर 2002 को इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार हुई थी। दोनों की यह दूसरी शादी थी। वर्ष 2005 में पति ने भोपाल के 'Court of Kazi' में तलाक का मामला दायर किया था, जो दोनों के बीच हुए समझौते के आधार पर खारिज कर दिया गया था। 2008 में पति ने 'Court of (Darul Kaja) Kajiyat' में फिर से तलाक की याचिका दायर की और उसी वर्ष पत्नी ने फैमिली कोर्ट में धारा 125 CrPC के तहत भरण-पोषण के लिए अर्जी दी।

फैमिली कोर्ट की आलोचना

सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट की उस दलील की कड़ी आलोचना की जिसमें कहा गया था कि चूंकि दोनों की यह दूसरी शादी थी इसलिए दहेज (Dowry) की मांग की संभावना नहीं थी। कोर्ट ने कहा कि यह अनुमान और कल्पना आधारित है और कानून के सिद्धांतों के खिलाफ है। साथ ही, कोर्ट ने यह भी कहा कि समझौता पत्र (Compromise Deed) से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि महिला ने अपनी गलती स्वीकार की थी। समझौते में ऐसा कोई स्पष्ट स्वीकारोक्ति नहीं थी। दरअसल, दोनों पक्षों ने साथ रहने और एक-दूसरे के खिलाफ कोई शिकायत न करने पर सहमति जताई थी।

Maintenance देने का आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने महिला के पक्ष में फैसला सुनाते हुए पति को आदेश दिया कि वह महिला को ₹4000 प्रति माह की दर से भरण-पोषण दे, जिसकी गणना फैमिली कोर्ट में भरण-पोषण याचिका दायर करने की तारीख से की जाएगी।

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