क्यों पुराने दोस्त भारत को आंखे दिखाकर चीन की भाषा बोलने के लिए मजबूर है नेपाल? ये है वजह

 चीन ने रणनीति के दौर पर भारत को घेरने के लिए पहले नेपाल में निवेश किया। अब नेपाल उसी की भाषा बोलने लगा है। आईए जानते हैं कि कैसे चीन ने नेपाल की संस्कृति में भी घुसपैठ कर रखी है और नेपाल चीन की भाषा बोलने के लिए मजबूर है।     

Asianet News Hindi | Published : Jun 20, 2020 11:42 AM IST / Updated: Jun 20 2020, 05:31 PM IST

नई दिल्ली. पूर्वी लद्दाख में सीमा को लेकर चीन के साथ भारत का विवाद चल रहा है। वहीं, पुराने दोस्त नेपाल के साथ भारत के रिश्तों में खटास आई है। इसका प्रमुख कारण नेपाल का नक्शा है। इस नक्शे में नेपाल ने भारत के तीन हिस्सों लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को शामिल किया है। नक्शा संसोधन विधेयक दोनों सदनों से भी पास हो गया है। नेपाल के राष्ट्रपति ने भी इस पर मुहर लगा दी है। बताया जा रहा है कि नेपाल चीन की शह पर भारत को आंख दिखा रहा है। चीन ने रणनीति के दौर पर भारत को घेरने के लिए पहले नेपाल में निवेश किया। अब नेपाल उसी की भाषा बोलने लगा है। आईए जानते हैं कि कैसे चीन ने नेपाल की संस्कृति में भी घुसपैठ कर रखी है और नेपाल चीन की भाषा बोलने के लिए मजबूर है।     

2017 में मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (एमसीसी) अनुदान ने नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन ला दिया। पीएम केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली पार्टी को दो मतों मे विभाजित हो गई कि अमेरिका से मिलने वाले फंड से चीन के साथ संबंधों को नुकसान पहुंचेगा। एमसीसी का विरोध करने वालों का कहना था कि एमसीसी की ग्रांड उस यूएस इंडो-पैसिफिक रणनीति का हिस्सा है, जो क्षेत्र में चीनी प्रभाव को कम करना चाहता है। विपक्षियों का कहना था कि  MCC को स्वीकार करना नेपाली संप्रभुता को अमेरिकियों के हाथ में देना और चीन को नाराज करना है। इस सबका का यह परिणाम होता है कि नेपाल और भारत में कालापानी को लेकर विवाद शुरू हो जाता है। नेपाल ने अपनी कार्टोग्राफिक आक्रामकता जारी रखी और भारत के क्षेत्रों लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधुरा को अपने क्षेत्र बताया है। 

भारत से विवाद के क्या हैं मायने?

यह माना जा रहा है कि यह विवाद बीजिंग के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के चलते बढ़ते दबदबे और नेपाल में अमेरिका के कम होते प्रभाव को बताता है। अमेरिका ने नेपाल में 500 मिलियन डॉलर के निवेश को अनुमति दी है। इससे  400 किलोवाट बिजली ट्रांसमिशन लाइन और 300 किमी सड़कों के पुनर्निमाण का काम होना है। 

इस पूरी कहानी का अंतिम सत्य है कि नेपाल ने चीन को खुश करने के लिए विकास कार्यों का भी बलिदान दे दिया।
 



चीन-नेपाल की जरूरतें

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की काठमांडू यात्रा के बाद नेपाल को यह विश्वास हो गया है कि ना सिर्फ केरूंग-काठमांडू रेलवे योजना बल्कि अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में भी तेजी आएगी, जिसकी उन्हें सख्त जरूरत थी। इस दौरे पर दोनों देशों के संयुक्त बयान में कहा गया कि नेपाल चीन के रिश्ते नए चरण में प्रवेश कर गए हैं। इस साझेदारी को कैसे परिभाषित किया जाएगा, यह देखना बाकी है। लेकिन बयान में कुछ ऐसे संकेत थे, जो बता रहे थे कि दोनों देश कैसे आगे बढ़ेंगे।

पहले, दोनों देशों ने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के तहत परियोजनाओं के कार्यान्वयन को तेज करने पर सहमति व्यक्त की है। अब ट्रांस-हिमालयन मल्टीडायमेंटल कनेक्टिविटी नेटवर्क के तहत विकसित किया जाना है। इसका ऐलान 2018 में हुआ था। हालांकि, रेलवे प्रोजेक्ट के लिए फंडिंग किस तरह से होगी, इस पर रिपोर्ट बनना बाकी है। चीन काम शुरू करने के लिए राजी हो गया है। हालांकि, रेलवे के लिए विस्तृत रिपोर्ट की फंडिंग मोडिटी है। अभी तक तय नहीं किया गया है, चीन ने काम शुरू करने पर सहमति व्यक्त की है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि रेल नेटवर्क का विस्तार पोखरा और लुम्बिनी तक होगा।



सिर्फ रेलवे लाइन ही इस उपहार का हिस्सा नहीं है। बल्कि तिब्बत रेल नेटवर्क भी केरूंग तक जुड़ेगा। कनेक्टिविटी पर अधिक ध्यान देने के साथ चीन पहले काठमांडू और रसुवागढ़ी के बीच एक महत्वपूर्ण सड़क का निर्माण कर रहा है। इससे उत्तरी सीमा की दूरी काफी कम हो जाएगी। रासुवागढ़ी सीमा तातोपानी सीमा के एक अहम विकल्प के रूप में उभरी है, जो हाल ही में खोली गई है। यह 2015 में आए भूकंप में क्षतिग्रस्त हो गई थी।

56 बिलियन नेपाली रु निवेश कर रहा चीन

इसके अलावा नेपाल में कनेक्टिविटी के लिए चीन ने कई और प्रोजेक्ट शुरू किए हैं। जिनपिंग ने नेपाल में 2 साल में 56 बिलियन नेपाली रुपए (35 अरब रुपए) की सहायता देने का ऐलान किया है। इसके अलावा चीन 'लैंड लिंक्ड' से 'लैंड लॉक्ड' देश बनने में भी नेपाल की मदद करेगा।  
 
यद्यपि उत्तर की ओर नेपाल का वर्तमान झुकाव 2015 की नाकेबंदी के बाद शुरू हुआ। जिनपिंग की यात्रा से पहले एक प्रत्यर्पण संधि पर हस्ताक्षर किए जाने की बात कही गई थी, लेकिन इसे सरकार द्वारा रद्द कर दिया गया था। हालांकि, विचार-विमर्श जारी रहा, और बयान जारी कर संधि को एक प्रारंभिक निष्कर्ष कहा गया। इस संधि पर देरी नेपाल की अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी प्रतिबद्धताओं के चलते हुई या यह तथ्य यह है कि उसने भारत के साथ पुराने 1953 के समझौते को अपडेट नहीं किया, यह स्पष्ट नहीं है।
 


हालांकि, इससे अन्य समझौतों पर असर नहीं पड़ा। "सूचना आदान-प्रदान, क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण पर कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच सहयोग" के तहत 2022 तक हर साल चीन में 100 नेपाली सुरक्षा कर्मियों की ट्रेनिंग होगी। यह समझौता तिब्बत की सीमा से सटे जिलों में सुरक्षा बुनियादी ढांचे के विकास में चीनी सहायता से जुड़ा है। 

बीजिंग का लार्गेस्ट भी काठमांडू के सभी मामलों में तिब्बती के सहयोग से अपनी संतुष्टि का संकेत देता है।

नेपाल में सांस्कृतिक घुसपैठ

नेपाल में कई स्कूलों में बच्चों के लिए मंदारिन भाषा (चीन की आधिकारिक भाषा) को सीखना अनिवार्य कर दिया गया है। चीनी सरकार इन शिक्षकों का वेतन भी दे रही है। पोखरा, धुलीखेल और देश के अन्य हिस्सों में कई और निजी स्कूलों ने भी छात्रों के लिए मंदारिन को अनिवार्य कर दिया है।

यह नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव का संकेत है। इसका मुख्य कारण बीजिंग की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव योजना (BRI) है। भारत ने BRI परियोजना का बायकाट किया है। दरअसल, इस परियोजना में 60 बिलियन अमरीकी डालर का चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा भी शामिल है। यह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से गुजरा है। 




नियमों को ताक पर रख रहे स्कूल
पाठ्यचर्या विकास केंद्र (सीडीसी) के दिशानिर्देशों के अनुसार, नेपाल में स्कूलों को विदेशी भाषाओं को पढ़ाने की अनुमति है, लेकिन वे ऐसे विषयों को छात्रों के लिए अनिवार्य नहीं बना सकते हैं। सीडीसी एक सरकारी संस्था है जो स्कूलों के लिए शैक्षणिक पाठ्यक्रम तैयार करता है। भले ही स्कूलों को इन नियमों की जानकारी है, इसके बावजूद उन्होंने लालच के चलते इनकी अनदेखी की है। क्यों कि उन्हें मुफ्त में टीचर भी मिल रहे हैं। विदेशी भाषाओं को स्कूल के समय में नहीं पढ़ाया जा सकता है। उनके लिए एक अलग से समय देना होता है। लेकिन यहां इस नियम का भी पालन नहीं किया जा रहा।

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