Kartik Purnima Vrat Katha: महादेव को क्यों कहते हैं त्रिपुरारी? पढ़ें कार्तिक पूर्णिमा की रोचक कथा

Published : Nov 04, 2025, 10:11 AM IST
Kartik Purnima Vrat Katha

सार

Kartik Purnima Vrat Katha: धर्म ग्रंथों में कार्तिक मास की पूर्णिमा का विशेष महत्व बताया गया है। इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा भी कहते हैं। इस दिन भगवान शिव की विशेष पूजा और व्रत किया जाता है। इस व्रत से जुड़ी एक रोचक कथा भी है।

Kartik Purnima Vrat Katha In Hindi: इस बार कार्तिक मास की पूर्णिमा 5 नवंबर, बुधवार को है। इस दिन देव दिवाली का पर्व भी मनाया जाता है। धर्म ग्रंथों में भी इस तिथि का विशेष महत्व बताया गया है। इस दिन नदी, तालाब आदि स्थानों पर लोग दीपदान भी करते हैं यानी जल में दीपक प्रवाहित करते हैं। इसे त्रिपुरारी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा से जुड़ी एक रोचक कथा भी है। जो लोग इस दिन व्रत करते हैं, उनके लिए ये कथा सुनना जरूरी है। आगे पढ़िए कार्तिक पूर्णिमा की कथा…

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कार्तिक पूर्णिमा की कथा हिंदी में

शिवपुराण के अनुसार, किसी समय तारकासुर नाम का एक पराक्रमी दैत्य था। उसके तीन पुत्र थे, वे भी अपने पिता की तरह ही शक्तिशाली थे। जब भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तो उसके पुत्रों को बहुत दुःख हुआ। देवताओं से बदला लेने के लिए उन्होंने घोर तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न कर लिया। ब्रह्माजी के प्रकट होने पर उन्होंने अमरता का वरदान मांगा लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान देने से मना कर दिया।

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तब उन तीनों ने ब्रह्माजी से कहा ‘आप हमारे लिए तीन ऐसे नगरों का निर्माण करवाईए, जिन पर बैठकर हम आकाश मार्ग में घूमते रहें। एक हजार साल बाद हम एक जगह मिलें। उस समय जो देवता उन तीनों पुरों को एक ही बाण से नष्ट कर सके, तभी हमारी मृत्यु मृत्यु संभव हो। ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया। ब्रह्माजी के कहने पर असुरों के शिल्पकार मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया। इनमें से एक सोने का, दूसरा चांदी का और तीसरा लोहे का था।
इस तरह आकाश में घूमते हुए वे तीनों असुर देवताओं को परेशान करने लगे। तब इंद्र आदि सभी देवता भगवान शिव से सहायता मांगने पहुंचें। देवताओं की करुण पुकार सुनकर भगवान शिव उन त्रिपुरों का नाश करने के लिए तैयार हो गए। विश्वकर्मा ने भगवान शिव के लिए एक अद्भुत और दिव्य रथ का निर्माण किया। चंद्रमा व सूर्य उस रथ के पहिए बने। स्वयं इंद्र, वरुण, आदि देवता रथ के घोड़े बने। हिमालय ने धनुष का रूप लिया और शेषनाग उस धनुष की प्रत्यंचा बने।
भगवान विष्णु बाण बने और अग्निदेव उसकी नोक। महादेव जब उस दिव्य रथ पर सवार होकर चले तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर दिया। ये युद्ध काफी समय तक चलता है। इस दौरान जैसे त्रिपुर एक सीध में आए, भगवान शिव ने विष्णु रूपी बाण चलाकर उनका नाश कर दिया। ऐसा होते ही दैत्य युद्ध छोड़कर भाग गए और देवता महादेव की जय-जयकार करने लगे। त्रिपुरों का अंत करने के बाद से ही भगवान शिव को त्रिपुरारी भी कहा जाने लगा।


Disclaimer
इस आर्टिकल में जो जानकारी है, वो धर्म ग्रंथों, विद्वानों और ज्योतिषियों से ली गईं हैं। हम सिर्फ इस जानकारी को आप तक पहुंचाने का एक माध्यम हैं। यूजर्स इन जानकारियों को सिर्फ सूचना ही मानें।

 

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