मधुबनी आर्ट की उत्पत्ति बिहार के मिथिलांचल में हुई थी। कहा जाता है कि इसका आरंभ राजा जनक के समय हुआ था, जब उन्होंने सीता मां के विवाह पर मिथिला की दीवारों को सजाने का आदेश दिया था।
मधुबनी पेंटिंग्स को ज्यादातर दीवारों और कपड़ों पर किया जाता था। इसमें ज्यामितीय पैटर्न, प्रकृति, देवी-देवताओं, पौराणिक कथाओं और ग्रामीण जीवन को दर्शाया जाता है।
मधुबनी कला में हाथ से बनाए गए पैटर्न के लिए काले, लाल, पीले, नीले जैसे प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है। पारंपरिक रूप से ये रंग पेड़ों की छाल, फूलों और पौधों से बनाए जाते थे।
मधुबनी आर्ट को 5 प्रकारों में बांटा गया है: भरणी, कच्छनी, तनजोर, गोदना और कोहबर। हर प्रकार का अपना अलग स्टाइल और पहचान होती है।
पारंपरिक रूप से इस कला को ग्रामीण महिलाएं अपने घरों की दीवारों और आंगनों में बनाती थीं। ये कला उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा रही है।
यह कला स्थानीय संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है। इसमें विवाह, त्यौहार, सूरज, चंद्रमा, पेड़-पौधे, देवी-देवता और पौराणिक कथाओं को चित्रित किया जाता है।
यह कला अपनी सूक्ष्मता, रंग संयोजन और बारीकी के लिए प्रसिद्ध है। बिना किसी खाली स्थान के चित्रकारी करने की विशेषता इसे अन्य चित्रकलाओं से अलग बनाती है।
यह कला स्थानीय संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है। इसमें विवाह, त्यौहार और धार्मिक अवसरों पर विशेष महत्व के चित्रण होते हैं।
आज मधुबनी पेंटिंग्स केवल भारत में ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रसिद्ध हैं। यह न केवल एक कला है, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा भी मानी जाती है।