
उज्जैन. इस्लाम को मानने वाले ईद-उल-अजहा पर्व पर बकरे की कुर्बानी देते हैं। इसलिए इसे कुर्बानी का त्योहार भी कहा जाता है। इस बार ये पर्व 10 जुलाई, रविवार को है। ईद उल अजहा का अर्थ त्याग वाली ईद है। इस दिन जानवर की कुर्बानी देना एक प्रकार की प्रतीकात्मक कुर्बानी है। इस्लाम धर्म की मान्यता के अनुसार पैगंबर हजरत इब्राहिम ने कुर्बानी देने की प्रथा की शुरुआत की थी। तभी से इस परंपरा को निभाया जा रहा है। ये पर्व मुस्लिमों के लिए बहुत खास है। इस पर्व से जुड़ी कई मान्यताएं भी हैं। आगे जानिए क्यों मनाते हैं ये पर्व व अन्य खास बातें…
इसलिए दी जाती है कुर्बानी
इस्लाम के अनुसार, हजरत इब्राहिम अल्लाह के पैगंबर थे। ऐसा कहा जाता है कि एक बार अल्लाह ने हजरत इब्राहिम से अपनी सबसे प्यारी चीज को कुर्बान करने का हुक्म दिया। पैगंबर साहब को अपना इकलौता बेटा इस्माइल सबसे अधिक प्रिय था। खुदा के हुक्म के अनुसार, उन्होंने अपने प्रिय इस्माइल को कुर्बान करने का मन बना लिया। इस बात से इस्माइल भी खुश था कि वह अल्लाह की राह पर कुर्बान होगा। जब हजरत इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल अपने बेटे की कुर्बानी देने लगे तो उसकी जगह एक दुंबा (भेड़ की नस्ल का एक पशु) कुर्बान हो गया। इस तरह इस्माइल बच गया। तभी से हर साल पैगंबर साहब द्वारा दी गई कुर्बानी की याद में बकरीद मनाई जाती है।
इन बातों का रखा जाता है ध्यान
1. इस्लाम के अनुसार, जिन व्यक्ति के पास पैसा न हो या उस पर किसी तरह का कोई कर्ज हो तो वह कुर्बानी नही दे सकता। कुर्बानी देने वाले पर किसी तरह कोई कर्ज नहीं होना चाहिए तभी उसकी कुर्बानी मानी जाती है।
2. जिस पशु की कुर्बानी दी जा रही है, वह पूरी तरह से स्वस्थ होना चाहिए। उसके शरीर के हर हिस्से पूरे होने चाहिए यानी जिस अवस्था में वो पैदा हुआ है, उसी अवस्था में होना चाहिए। बीमार, सींग या कान का अधिकतर भाग टूटा हो या छोटे पशु की कुर्बानी नहीं दी जा सकती।
3. कुर्बानी के बाद मांस के तीन हिस्से करने जरूरी होते हैं। एक हिस्सा खुद के इस्तेमाल के लिए रखा जाता है, दूसरा गरीबों के लिए और तीसरा संबंधियों व पड़ोसियों में बांटा जाता है।
डिस्क्लेमर : यह जानकारी जनरुचि को ध्यान में रखकर दी जा रहा है। कंटेंट का उद्देश्य मात्र आपको बेहतर सलाह देना है। इस संदर्भ में हम किसी प्रकार का कोई दावा नहीं करते हैं।
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