गरुड़ पुराण: मां के गर्भ में ही सोचने लगता है शिशु, जानिए उसके मन में क्या-क्या विचार आते हैं

मेडिकल साइंस के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान माता जो भी खाती-पीती है, उसी का अंश गर्भस्थ शिशु को भी मिलता है। यही बात हिंदू धर्म ग्रंथों में भी बताई गई है। गरुड़ पुराण में शिशु के माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक का स्पष्ट विवरण दिया गया है।

Asianet News Hindi | Published : Sep 10, 2020 3:47 AM IST

उज्जैन. गरुड़ पुराण में शिशु के माता के गर्भ में आने से लेकर जन्म लेने तक का स्पष्ट विवरण दिया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि शिशु को माता के गर्भ में क्या-क्या विचार आते हैं। आज हम गरुड़ पुराण में लिखी यही बातें आपको बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं-

1. ईश्वर से प्रेरित हुए कर्मों से शरीर धारण करने के लिए पुरुष के वीर्य बिंदु के माध्यम से स्त्री के गर्भ में जीव प्रवेश करता है। एक रात्रि का जीव कोद (सूक्ष्म कण), पांच रात्रि का जीव बुदबुद (बुलबुले) के समान तथा दस दिन का जीव बदरीफल (बेर) के समान होता है। इसके बाद वह एक मांस के पिण्ड का आकार लेता हुआ अंडे के समान हो जाता है।

2. एक महीने में मस्तक, दूसरे महीने में हाथ आदि अंगों की रचना होती है। तीसरे महीने में नाखून, रोम, हड्डी, लिंग, नाक, कान, मुंह आदि अंग बन जाते हैं। चौथे महीने में त्वचा, मांस, रक्त, मेद, मज्जा का निर्माण होता है। पांचवें महीने में शिशु को भूख-प्यास लगने लगती है। छठे महीने में शिशु गर्भ की झिल्ली से ढंककर माता के गर्भ में घूमने लगता है।

3. माता द्वारा खाए गए अन्न आदि से बढ़ता हुआ वह शिशु विष्ठा (गंदगी), मूत्र आदि का स्थान तथा जहां अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है, ऐसे स्थान पर सोता है। वहां कृमि जीव के काटने से उसके सभी अंग कष्ट पाते हैं, जिसके कारण वह बार-बार बेहोश भी होता है। माता जो भी कड़वा, तीखा, रूखा, कसैला आदि भोजन करती है, उसके स्पर्श होने से शिशु के कोमल अंगों को बहुत कष्ट होता है।

4. इसके बाद शिशु का मस्तक नीचे की ओर तथा पैर ऊपर की ओर हो जाते हैं, वह इधर-उधर हिल नहीं सकता। जिस प्रकार से पिंजरे में रूका हुआ पक्षी रहता है, उसी प्रकार शिशु माता के गर्भ में दु:ख से रहता है। यहां शिशु सात धातुओं से बंधा हुआ भयभीत होकर हाथ जोड़ ईश्वर की (जिसने उसे गर्भ में स्थापित किया है) स्तुति करने लगता है।

5. सातवें महीने में उसे ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह सोचता है- मैं इस गर्भ से बाहर जाऊंगा तो ईश्वर को भूल जाऊंगा। ऐसा सोचकर वह दु:खी होता है और इधर-उधर घूमने लगता है। सातवें महीने में शिशु अत्यंत दु:ख से वैराग्ययुक्त हो ईश्वर की स्तुति इस प्रकार करता है- लक्ष्मी के पति, जगदाधार, संसार को पालने वाले और जो तेरी शरण आए उनका पालन करने वाले भगवान विष्णु का मैं शरणागत होता हूं।

6. गर्भस्थ शिशु भगवान विष्णु का स्मरण करता हुआ सोचता है कि हे भगवन। तुम्हारी माया से मैं मोहित देह आदि में और यह मेरे ऐसा अभिमान कर जन्म मरण को प्राप्त होता हूं। मैंने परिवार के लिए शुभ काम किए, वे लोग तो खा-पीकर चले गए। मैं अकेला दु:ख भोग रहा हूं। हे भगवन। इस योनि से अलग हो तुम्हारे चरणों का स्मरण कर फिर ऐसे उपाय करुंगा, जिससे मैं मुक्ति को प्राप्त कर सकूं।

7. फिर गर्भस्थ शिशु सोचता है कि मैं दु:खी विष्ठा व मूत्र के कुएं में हूं और भूख से व्याकुल इस गर्भ से अलग होने की इच्छा करता हूं, हे भगवन। मुझे कब बाहर निकालोगे? सभी पर दया करने वाले ईश्वर ने मुझे ये ज्ञान दिया है, उस ईश्वर की मैं शरण में जाता हूं, इसलिए मेरा पुन: जन्म-मरण होना उचित नहीं है।

8. गरुड़ पुराण के अनुसार, फिर माता के गर्भ में पल रहा शिशु भगवान से कहता है कि मैं इस गर्भ से अलग होने की इच्छा नहीं करता क्योंकि बाहर जाने से पापकर्म करने पड़ते हैं, जिससे नरक आदि प्राप्त होते हैं। इस कारण बड़े दु:ख से व्याप्त हूं फिर भी दु:ख रहित हो आपके चरण का आश्रय लेकर मैं आत्मा का संसार से उद्धार करुंगा।

9. इस प्रकार गर्भ में विचार कर शिशु नौ महीने तक स्तुति करता हुआ नीचे मुख से प्रसूति के समय वायु से तत्काल बाहर निकलता है। प्रसूति की हवा से उसी समय शिशु श्वास लेने लगता है तथा अब उसे किसी बात का ज्ञान भी नहीं रहता। गर्भ से अलग होकर वह ज्ञान रहित हो जाता है, इसी कारण जन्म के समय वह रोता है।

10. गरुड़ पुराण के अनुसार, जैसी बुद्धि गर्भ में, रोग आदि में, श्मशान में, पुराण आदि सुनने में रहती है, वैसी बुद्धि सदा रहे तब इस संसार के बंधन से कौन नहीं छूट सकता। जिस समय शिशु कर्म योग द्वारा गर्भ से बाहर आता है, उस समय भगवान विष्णु की माया से वह मोहित हो जाता है। माया से मोहित तथा विनाश वह कुछ भी नहीं बोल सकता और बाल्यावस्था के दु:ख भी भोगता है।

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