Rukmini Ashtami 2022: कैसे हुआ था देवी रुक्मिणी का श्रीकृष्ण से विवाह, इनकी कितनी संतान थीं?

Published : Dec 13, 2022, 12:33 PM IST
Rukmini Ashtami 2022: कैसे हुआ था देवी रुक्मिणी का श्रीकृष्ण से विवाह, इनकी कितनी संतान थीं?

सार

Rukmini Ashtami 2022: इस बार रुक्मिणी अष्टमी का पर्व 16 दिसंबर, शुक्रवार को मनाया जाएगा। श्रीमद्भागवत के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण की 8 पटरानी थी, लेकिन उन सभी में देवी रुक्मिणी प्रमुख थीं। धर्म ग्रंथों में इन्हें देवी लक्ष्मी का अवतार भी बताया गया है।   

उज्जैन. धर्म ग्रंथों के अनुसार, पौष मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को रुक्मिणी अष्टमी (Rukmini Ashtami 2022) का पर्व मनाया जाता है। इस बार ये तिथि 16 दिसंबर, शुक्रवार को है। देवी रुक्मिणी भगवान श्रीकृष्ण की प्रमुख पटरानी थी। इन्हें देवी लक्ष्मी का अवतार भी माना जाता है। रुक्मिणी अष्टमी पर प्रमुख मंदिरों में विशेष साज-सज्जा और आयोजन किए जाते हैं। देवी रुक्मिणी किसकी पुत्री थीं और उनके कितने पुत्र-पुत्रियां थीं, इसके बारे में कम ही लोग जानते हैं। रुक्मिणी अष्टमी के मौके पर जानें ऐसी ही रोचक बातें…

किसकी पुत्री थी देवी रुक्मिणी?
श्रीमद्भागवत के अनुसार, देवी रुक्मिणी के पिता का नाम भीष्मक था, जो विदर्भ देश के राजा थे। देवी रुक्मिणी का एक भाई था, जिसका नाम रुक्मी था। वह देवी रुक्मिणी का विवाह अपने मित्र शिशुपाल से करना चाहता था, लेकिन रुक्मिणी मन ही मन भगवान श्रीकृष्ण से प्रेम करती थी। जब श्रीकृष्ण को पता चला कि रुक्मी ने अपनी बहन का विवाह शिशुपाल से तय कर दिया है तो वे अकेले ही जाकर देवी रुक्मिणी का हरण कर द्वारिका ले आए और उनका विवाह हो गया।


श्रीकृष्ण की प्रमुख रानी थी देवी रुक्मिणी
श्रीमद्भागवत के अनुसार, वैसे तो भगवान श्रीकृष्ण की 8 पटरानियां थीं, लेकिन उन सभी में देवी रुक्मिणी प्रमुख थीं। रुक्मिणी के गर्भ से जो पुत्र हुए, उनके नाम- प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचंद्र, विचारु व चारु था। इनके अलावा देवी रुक्मिणी की एक पुत्री भी थी, जिसका नाम चारुमती था। उसका विवाह कृतवर्मा के पुत्र बली से हुआ था। 


जब तुलसी के पत्ते से दिया समर्पण का संदेश
श्रीमद्भागवत के अनुसार, एक बार भगवान श्रीकृष्ण को तीसरी पत्नी सत्यभामा को यह शंका हुआ कि वे रुक्मिणी को अधिक प्रेम करते हैं। श्रीकृष्ण की प्रिय बनने के लिए सत्यभामा ने एक यज्ञ आयोजित किया, जिसके प्रमुख यज्ञकर्ता स्वयं नारद थे। यज्ञ के अंत में नारद जी ने दक्षिणा के रूप में श्रीकृष्ण को ही मांग लिया। तब सत्यभामा ने इसका कोई विकल्प पूछा तो नारदजी ने कहा कि श्रीकृष्ण के तौल के बराबर सोना मुझे दे दीजिए। लेकिन बहुत प्रयत्न करने के बाद भी श्रीकृष्ण का पलड़ा भारी रहा। तब सत्यभामा ने रुक्मिणी से मदद मांगी। देवी रुक्मिणी ने एक तुलसी का पत्ता तराजू के दूसरी ओर रख दिया और इस तरह तुला दान संपन्न हुआ। देवी रुक्मिणी ने सत्यभामा को समझाया कि प्रेम का अर्थ समर्पण है न कि अभिमान।


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