1 वोट की कीमत: 21 साल पहले इस आरक्षित सीट पर हुई कांटे की लड़ाई, BJP नहीं बचा पाई थी सीट

इस बार राज्य की 243 विधानसभा सीटों पर 7.2 करोड़ से ज्यादा वोटर मताधिकार का प्रयोग करेंगे। 2015 में 6.7 करोड़ मतदाता थे। बिहार चुनाव समेत लोकतंत्र में हर एक वोट की कीमत है।

Asianet News Hindi | Published : Sep 27, 2020 1:01 PM IST

नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा (Bihar Polls 2020) चुनाव की घोषणा हो चुकी है। इस बार राज्य की 243 विधानसभा सीटों पर 7.2 करोड़ से ज्यादा वोटर मताधिकार का प्रयोग करेंगे। 2015 में 6.7 करोड़ मतदाता थे। कोरोना महामारी (Covid-19) के बीचे चुनाव कराए जा रहे हैं। इस वजह से इस बार 7 लाख हैंडसैनिटाइजर, 46 लाख मास्क, 6 लाख PPE किट्स और फेस शील्ड, 23 लाख जोड़े ग्लब्स इस्तेमाल होंगे। यह सबकुछ मतदाताओं और मतदानकर्मियों की सुरक्षा के मद्देनजर किया जा रहा है। ताकि कोरोना के खौफ में भी लोग बिना भय के मताधिकार की शक्ति का प्रयोग कर सकें। बिहार के चुनाव समेत लोकतंत्र में हर एक वोट की कीमत है। कई लोग सवाल करते हैं कि भला मात्र उनके वोट न देने से क्या फर्क पड़ेगा। जिन्हें ऐसा लगता है उन्हें 21 साल पहले 1999 में घाटमपुर लोकसभा चुनाव (Ghatampur Lok Sabha constituency) के नतीजों को देख लेना चाहिए। 

घाटमपुर, 2004 तक उत्तर प्रदेश की महत्वपूर्ण लोकसभा सीट रही है। ये सीट अनुसूचित (SC) समाज के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित थी। हालांकि 2008 में परिसीमन के बाद ये नया लोकसभा क्षेत्र बन गया। उससे पहले यूपी में सियासी अखाड़े का ये एक अहम क्षेत्र था। 1977, 1999 और 2004 के नतीजों को छोड़ दिया जाए तो इस लोकसभा सीट पर हमेशा से राष्ट्रीय दलों का दबदबा रहा है। यहां से कांग्रेस (Congress) ने सबसे ज्यादा पांच बार लोकसभा सीट जीती। बीजेपी (BJP), जनता दल (Janata Dal) ने दो-दो बार और एक बार जनता पार्टी (Janata Party) ने ये सीट जीती। बीएसपी (BSP), एसपी (SP) और भारतीय लोकदल (Bhartiya Lok Dal) ने भी इस सीट पर एक-एक बार जीत दर्ज की है। 

1999 में हुआ था सबसे दिलचस्प मुकाबला 
लेकिन 19957 से 2004 तक के सभी चुनावों में यहां सबसे दिलचस्प मुक़ाबला 1999 के मध्यावधि चुनाव के दौरान देखने को मिला था। सिर्फ घाटमपुर ही नहीं देश की किसी भी आरक्षित लोकसभा चुनाव में कभी इतना नजदीकी मुक़ाबला देखने को नहीं मिला था। सपा (SP) और बीएसपी (BSP) के उभार के बाद एक दशक तक यूपी में त्रिकोणीय राजनीति थी। यूपी की लगभग हर सीट का यही हाल था। मजेदार यह है कि सपा, बीएसपी के आमने-सामने होने की वजह से लोकसभा चुनाव में बीजेपी को फायदा मिलता था। लेकिन 1999 के चुनाव में यहां बीएसपी, सपा और बीजेपी की त्रिकोणीय लड़ाई में बीजेपी को वो फायदा नहीं मिला। कांग्रेस और अपना दल (Apna Dal) के उम्मीदवार भी मैदान में थे। 

 

कैम्पेन से काउंटिंग तक कांटे की लड़ाई 
उस चुनाव में बीजेपी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे पर मैदान में थी। बीजेपी ने मौजूदा सांसद कमला रानी (Kamala Rani) पर भरोसा जताया था। जबकि बीएसपी के टिकट पर प्यारेलाल शंकवार (Pyare Lal Sankhwar) और सपा की ओर से अरुण कोरी (Aruna Kori) मैदान में थे। चुनाव कितना जबरदस्त था यह कैम्पेन से ही दिखने लगा था। अंदाजा लगाना मुश्किल था कि तीनों उम्मीदवारों में से किसके सिर पर जीत का सहरा बंधेगा। कैम्पेन में जो कांटे की लड़ाई दिख रही थी वह मतगणना में भी आखिरी राउंड तक नजर आई। हर आधे घंटे पर नतीजे बदल जाते। तीनों में से कभी कोई आगे हो जाता और कभी कोई पीछे। 

सिर्फ .02 प्रतिशत से हुआ था हार-जीत का फैसला 
प्रत्याशियों के साथ ही उनके समर्थकों के चेहरे पर उस कांटे की लड़ाई का तनाव नजर आ रहा था। तीनों प्रत्याशी किसी  अनहोनी की आशंका में पशीने से तरबतर थे। कोई भी अंदाजा लगाना मुश्किल था। आखिरी राउंड के बाद जब नतीजे अनाउंस हुए तब बीएसपी उम्मीदवार प्यारेलाल शंकवार को मात्र 00.02 प्रतिशत ज्यादा वोटों की वजह से विजयी घोषित कर दिया गया। प्यारेलाल को 1,56,582 (28.06%) वोट मिले थे। दूसरे नंबर पर सपा उम्मीदवार को 1,56,477 (28.04%) वोट मिले। हार जीत का फैसला मात्र 105 वोट से हुआ। 

तीनों प्रत्याशियों में वोटों का अंतर मामूली 
मजेदार यह है कि तीसरे नंबर पर बीजेपी उम्मीदवार भी दोनों से ज्यादा पीछे नहीं थीं। बीजेपी को 1,55,987 (27.95%) वोट मिले। संभवत: घाटमपुर लोकसभा का चुनाव यूपी के इतिहास में भी सबसे मुश्किल चुनाव में शुमार हो गया। उस चुनाव में दोनों प्रत्याशियों की हार का अंतर इतना कम था कि उन्हें एक-एक वोट की अहमियत समझ में आई होगी। वैसे, 1999 के चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए (NDA) ने पूर्ण बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बना ली थी। सरकार ने अपना कार्यकाल भी पूरा किया, मगर कुछ सौ वोटों की वजह से बीजेपी को घाटमपुर का प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया। 

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