'सम्राट पृथ्वीराज' के फ्लॉप होने पर फिल्म के डायरेक्टर ने बयां किया दर्द, इंटरव्यू में किए कई खुलासे

बातचीत के दौरान डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी भावुक हो गए और बोले, "पृथ्वीराज की असफलता के बाद अक्षय ने मुझसे कहा 'क्या मैंने तुम्हारा नुकसान किया डॉक्टर?' उनको ऐसा लगता है कि फिल्म की असफलता के कारण  सबसे ज्यादा नुकसान किसी का हुआ है तो वो मेरा हुआ है।"

एंटरटेनमेंट डेस्क. क्या आप सबको चाणक्य याद है? जब आप चाणक्य के बारे में सोचते हैं तो सबसे पहले किसका चेहरा ध्यान आता है। कठोर चेहरे वाला, एक चोटीधारी ज्ञानी कूटनीतिज्ञ बरबस ही डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी जी की याद दिला देता है। 90 के दशक में दूरदर्शन पर प्रदर्शित चाणक्य धारावाहिक में डॉ चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने चाणक्य का रोल किया था और उसके बाद ऐसा लगता है कि चाणक्य बस ऐसे ही रहे होंगे। बिलकुल वैसे ही जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब के रूप में नसीर नज़र आते हैं, अरुण गोविल में राम और नीतीश में कृष्ण नज़र आते हैं। इतिहास से अथाह प्रेम करने वाले डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी एक निर्माता हैं, निर्देशक हैं, लेखक हैं और एक अभिनेता भी हैं। हालांकि उन्होंने अपनी पढाई मेडिकल साइंस में की है और वो एक डॉक्टर भी हैं। अभी हाल में ही अपनी फिल्म 'सम्राट पृथ्वीराज' को लेकर डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी काफी चर्चा में थे। फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं हो पाई,  लेकिन इतिहास बनाने वाले और इतिहास पर फिल्म बनाने वाले दोनों ही इतिहास रचते हैं। कई बार ऐसा होता है कि तब हम उसका महत्व नहीं समझते जब वो हमारे जीवन में घटित हो रहा होता है। जैसे 'मेरा नाम जोकर'  इसका एक अच्छा उदाहरण है, जो प्रदर्शन के समय तो फ्लॉप रही, लेकिन आज वो एक बड़ी हिट फिल्म है। बिल्कुल उसी तरह 'सम्राट पृथ्वीराज' भी अथक मेहनत से बनाई हुई फिल्म है, जिसकी महत्ता आज नहीं तो कल ज़रूर होगी। डॉ चन्द्रप्रकाश द्विवेदी को समझने के लिए, उनके विचारों और सपनों को समझने के लिए उनसे विस्तार में एक सार्थक बातचीत हुई। आप भी पढ़िए एक विनम्र, बुद्धिमान और शानदार फिल्मकार पद्मश्री डॉ चन्द्रप्रकाश द्विवेदी से रचना श्रीवास्तव की सार्थक और आत्मीय बातचीत...

Q. क्या घर पर पढ़ने का ज़ोर था या कोई और वज़ह की आप डॉक्टर बन गए, क्योकि आपका रुझान तो साहित्य की तरफ था?

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A. नहीं ऐसे कोई वजह नहीं थी, कोई दबाव मुझ पर नहीं था। मेरे पिता संस्कृत के प्राध्यापक थे और हम ऐसे घर परिवार में बड़े हुए जहां माता-पिता के साथ संवाद भी कम ही होता है, लेकिन इस प्रकार का कोई आग्रह मेरे माता-पिता की तरफ से नहीं था कि मुझे डॉक्टर बनना है। मेरे बड़े भाई हिंदी में परास्नातक की पढाई कर रहे थे तो उनकी किताबें पढ़-पढ़ कर मेरी साहित्य में रूचि हुई। क्योंकि मेरे घर में साहित्य का वातावरण था, बस इसी सब वातावरण के कारण मेरा साहित्य की ओर रुझान हुआ।        

Q. क्या वो सपने पूरे हुए जिसके लिए मेडिकल प्रोफेशन छोड़ा? या कभी लगता है कि मेडिकल प्रोफेशन नहीं छोड़ना था?

A. डॉक्टर हमेशा डॉक्टर होता है। मैं मेडिकल प्रोफेशन में न होते हुए भी उससे जुड़ा हूं। जहां मैं काम करता हूं, वहां यूनिट में बहुत सारे लोग काम करते हैं, जिसमे कई लोग बीमार होते हैं, इसलिए मैं हमेशा उन बीमार लोगों को सलाह दिया करता हूं, उन्हें सही जगह रेफर करता रहता हूं। मेरे घर पर आने वाले अघिकतर मित्र चिकित्सा फील्ड से ही होते हैं। मेरे कॉलेज के दिनों के सहपाठी भी अलग-अलग जगहों पर देश-विदेश में फैले हैं, जिनसे मेरी बात होती रहती है, तो बस इसी तरह मेडिकल से जुड़ा रहता हूं।        

Q. जब आपने कहा कि आप मेडिकल प्रोफेशन छोड़कर सिनेमा की तरफ रुख करना चाहते हैं तो क्या आपका निर्णय परिवार में सहर्ष स्वीकार कर लिया गया था?

A. नहीं! मैंने नाटक से प्रारंभ किया था और 1954 में ही मेरे पिता जी का देहांत हो गया था। मेरी मां जीवित थीं, जब मैं चाणक्य बना रहा था। जिस तरह के परिवार में हम लोग रहें हैं, वहां नाटक और सिनेमा दोनों से दूरी बनाए रखना एक तरह से अनिवार्य था। मेरे बड़े भाई तो अब से 8-10 साल पहले तक कहते थे कि तू ये क्या नाटक करता रहता है, तू ये बंद कर दे। उनका ये मानना था की इसमें संघर्ष बहुत है। सफल होने के बाद भी हमेशा सफल रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। कई बार लोग मुझसे पूछते हैं की आप दूसरा चाणक्य कब बना रहें है। पर ये आसान नहीं हैं, वर्षों की अथक मेहनत के बाद एक सीरियल बनता है। बाकी लोगों के लिए ये व्यवसाय है, मनोरंजन है पर मैं मानता हूं की कला के माध्यम से व्यक्ति बदल सकता है। इतना सारा इतिहास है, पौराणिक कथाएं हैं और कथा का विस्तार कल्पना के नाम पर इतना हो जाता है की उसका सत्य से कोई सरोकार नहीं रह जाता है। फिर भी मैं ये कोशिश करता हूं कि इतिहास का उल्लंघन न हो और जहां इतिहास मौन है, उस जगह को खोलने की कोशिश करता हूं।  

Q. एक ही इतिहास, एक ही किताब बहुत तरीके से लिखी गई है, लोगों ने अलग-अलग किताबें पढ़ी हैं तो सबको संतुष्ट कर पाना कितना मुश्किल होता है?

A. बहुत मुश्किल होता है, पर दुःख इस बात का होता है कि लोग पढ़ते नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर कितने लोगों ने बाल्मीकि की रामायण पढ़ी है? पर वे बिना पढ़े इस पर वाद-विवाद करते हैं। रामचरित मानस और रामायण में अंतर है, पर लोग ये नहीं जानते। अब बात करते हैं 'पृथ्वीराज रासो' की। इसके भी अलग-अलग संस्करण हैं। राजस्थान से प्रकाशित संस्करण में तराई के तृतीय युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज की मृत्यु हो जाती है तो पृथ्वीराज को अफगानिस्तान ले जाने की बात क्या काल्पनिक है? वाराणसी से प्रकाशित संस्मरण ये लिखता है कि पृथ्वीराज को गोरी ग़जनी ले जाता है, उन्हें अंधा बनाता है आदि-आदि। तो रासो के अलग-अलग संस्करण अलग बात कहते हैं और यही सबसे मुश्किल है कि सत्य है क्या?  

अब जहां तक "चार बांस चौबीस गज अंगुल अष्ट प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान" की बात है तो ये रासो के किसी भी संस्करण में नहीं उल्लेखित है पर ये जनमानस में बहुत प्रचलित है और जब आप इसको नहीं देखते तो लगता है कि द्विवेदी जी का अध्ययन ठीक नहीं है। पृथ्वीराज के अंत को लेकर अलग-अलग कहानियां हैं और सारी कहानियां एक फिल्म का हिस्सा नहीं हो सकतीं हैं।

भाषा को लेकर भी कई जगह आलोचना हुई, पर मैं ये बताना चाहता हूं कि रासो में भी इस तरह की भाषा इस्तेमाल हुई है। मैंने उसके कई अंश पढ़कर भी लोगों को सुनाए हैं। उर्दू भाषा का उत्तराधिकारी सिर्फ मुसलमान नहीं है। बांग्लादेश के मुसलमान बांग्ला बोलते हैं, कर्नाटक के मुसलमान कन्नड़ बोलते हैं। इसी तरह तमिलनाडु, गुजरात और दूसरी जगहों के मुसलमान अपनी रीजनल भाषा ही बोलते हैं। क्या हम कह सकते हैं कि हिन्दी सबसे पहले किसने बोली और कौन इसका उत्तराधिकारी है? तो भाषा पर बात करना एक मुश्किल विषय है और जब हम फिल्म बनाते हैं तो आसान भाषा का प्रयोग करते हैं पर लोग नहीं समझते और इस बात को लेकर बहुत विवाद हुआ कि मैंने फिल्म में भाषा का ध्यान नहीं रखा।  

जी बिलकुल, ये दुखद है की लोग बिना पूरा ज्ञान प्राप्त किये एक फिल्म को नकार देते हैं, जो न्यायसंगत नहीं है।

मेरे एक अभिन्न मित्र ने मुझसे कहा की पृथ्वीराज आपके जीवन की सबसे बकवास फिल्म है तो मैंने कहा ठीक है पर आप कारण बताएं क्यों? वे बोले, आपने उनके दरबार में सारे दरबारियों को ज़मीन पर बैठा हुआ दिखाया, उन्हें सफ़ेद कपड़े पहनाए जैसे वे गांव के पटेल हों, और मेरे ख़्याल से ये सब गलत था। तो मैंने उनसे पूछा कि आपने कितनी मिनिएचर पेंटिंग्स देखीं हैं? मेरे पास ऐसे प्रमाणिक चित्र, किताबें थीं जिनमें ऐसा दिखाया गया था इसीलिए मैंने उसे फिल्म में दिखाने का फ़ैसला किया पर लोग अपने मन में एक धारणा बना लेते हैं और उसी तरह देखना चाहते हैं जो इतिहास के साथ न्यायसंगत नहीं लगता।     

Q. जब आपने चाणक्य बनाया था तो चाणक्य बनाने का ही क्यों सोचा?

A. मुझे विश्वास था कि मैं उस तरह का ही सिनेमा बनाना चाहता था। मैं ऐसी सभ्यता को परदे पर दिखाना चाहता था, जिसको आपने पढ़ा है, पर देखा नहीं है। एक दूसरे युग में ले जाना मुझे चुनौती पूर्ण लगा। जब हम इतिहास में काम करते हैं तो उसके चरित्र अभूतपूर्व होते हैं, जैसे चाणक्य, पृथ्वीराज, महाराणा प्रताप, शिवाजी इत्यादि। ऐसे लोग सदियों में एक बार जन्म लेते हैं तो उनके बारे कहना मुझे रुचिकर लगा। भारत की धरती वीरों और विचारकों की धरती है पर उन पर कितनी कम फ़िल्में बनती हैं मसलन कबीर पर, रामानुजाचार्य पर मैंने कोई फिल्म नहीं देखी। खजुराहो के मंदिरों के शिल्पकार के बारे में हम कितना जानते हैं? तो कहना यही है कि हमारे पास कितनी ही अनसुनी कहानियां हैं, पर इतिहास पर फिल्म बनाना मुश्किल भी है और उसकी व्यावसायिक चुनौतियां भी हैं। असफल होने पर निराशा तो होती है पर मैं कला का यात्री हूं, फिर से साहस जुटा कर काम पर लग जाता हूं।     

Q. आप इतने अनुसंधान और मेहनत के बाद फिल्में बनाते हैं, पर जब फिल्म का इस तरह विरोध होता है तो क्या फिर से इस तरह की फ़िल्में बनाने का साहस करेंगे?

A. पृथ्वीराज पर लिखी मेरी सबसे पहली स्क्रिप्ट मैंने अपनी बेटी को ईमेल कर दी थी जो वाराणसी के पृथ्वीराज रासो से प्रेरित थी। बाद में कई कारणों से स्क्रिप्ट में कई परिवर्तन हुए जो मेरी पहली स्क्रिप्ट से अलग थी। इस जन्म में शायद ये संभव नहीं होगा कि मैं फिर से पृथ्वीराज बनाऊं पर मैंने अपनी बेटी को कहा है कि अगर भविष्य में कोई इस विषय पर काम करना चाहे तो उसे ये स्क्रिप्ट दिखाना।

गोस्वामी तुलसीदास से जब रामचरित मानस के बाद किसी ने पूछा की अभी क्या करना रह गया है तो वे बोले की मैं ऐसी नाव नहीं बना पाया जिस पर बैठकर लोग भवसागर पार कर जाएं। वे मानते थे कि रामचरित मानस वे उस तरह से नहीं लिख पाए, जैसा लिखना चाहते थे। जबकि सभी जानते हैं कि मानस एक कालजयी रचना है। तो मैं भी भविष्य की संभावनाओं के बारे में सोचता हूं और मेरी उत्तराधिकारी मेरी बेटी है जिसके पास मैं अपनी सारी मूल स्क्रिप्ट भेज देता हूं, ताकि भविष्य में उन पर काम किया जा सके। आखिर मैं अपने जीवन काल में सब कुछ नहीं कर सकता। मेरे पास बहुत सारी स्क्रिप्ट हैं जैसे बुद्ध पर, आदि गुरु शंकराचार्य पर और सम्राट अशोक पर और मेरा उद्देश्य यही है कि जो भी मेरे बाद इस पर काम करना चाहे, वो कर सकता है और मेरी बौद्धिक सम्पदा मेरी बेटी के पास सुरक्षित रहे।  

Q. 'पिंजर' कैसे मिली और कैसे इसका संयोग कैसे बना?

A. ये भी एक संयोग था, क्योंकि हम उन दिनों कृष्ण-चरित्र बना रहे थे। अचानक किसी ने निर्माताओं को ये कह कह दिया कि जो आप टेलीविज़न पर मुफ्त देख सकते हैं उस पर आप फिल्म क्यों बना रहें हैं? क्योंकि उन दिनों कृष्ण पर कई धारावाहिक दूरदर्शन पर आ रहे थे। हालांकि हम बिलकुल अलग तरीके से फिल्म बना रहे थे, पर इस संदेह के चलते फिल्म रुक गई। फिर कंपनी ने सहानुभूति के तौर पर मेरी किसी और स्क्रिप्ट को सपोर्ट करने का फैसला किया। 'पिंजर' मैंने NFDC के लिए लिखी थी, जो कम पैसे के कारण नहीं हो पाई थी तो मैंने वही कहानी यहां करने के फैसला किया। हालांकि पिंज़र को भी साम्प्रदायिक कारणों से आलोचना का शिकार होना पड़ा कि इसमें मुसलमानों को अत्याचारी दिखाया गया है और मैंने ऐसा जानबूझ कर किया है। पर मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था। दुर्भाग्य से अब सिनेमा में भी राजनीति है। जिन दिनों फिल्म रिलीज़ हुई, एक बड़े अख़बार ने मुख्य पृष्ठ पर फिल्म की समीक्षा लिखी और फिल्म को बकवास करार दिया पर फिल्म लोगों के मानस पर अभी भी ज़िंदा है और यही मेरी सफलता है। चाणक्य के समय भी ऐसा ही हुआ था, उसे बंद तक करने की नौबत आ गई थी पर आज लगभग 30 वर्षों के बाद भी लोग इसको सराहते हैं, देखते हैं और यही मेरी सफलता है। यही बात उपनिषद गंगा के साथ भी हुई तो कहने की बात ये कि लोग समय से पहले ही आंकलन कर लेते हैं जो सही नहीं है।
           
Q. आपकी नई फिल्म 'राम सेतु' दिवाली पर आने वाली है, आप इसके क्रिएटिव प्रोडूसर हैं। क्या होता है क्रिएटिव प्रोडूसर और किस तरह फिल्म में इसका योगदान होता है?

A. मैं ये मानता हूं कि हर प्रोडूसर क्रिएटिव होता है, क्योंकि वो क्रिएटिव है, तभी फिल्मों की ओर अग्रसर होगा। अब रही मेरी बात तो कई बार प्रोडूसर बहुत बिजी होते हैं और उनके अलग-अलग प्रोजेक्ट चल रहे होते हैं। ऐसे में एक ऐसे जिम्मेदार व्यक्ति की ज़रूरत होती है, जो उस फिल्म की समझ रखता हो और उस फिल्म को क्रिएटिवली गाइड कर सके। निर्देशक के साथ क्रिएटिव प्रोडूसर उस विषय पर अपने अनुभव साझा करता है, जो फिल्म को सही दिशा में ले जाती है।

Q. राम-सेतु कैसे मिली?

A. राम-सेतु का विषय अभिषेक शर्मा के माध्यम से अक्षय कुमार के पास आया। अक्षय कुमार ने मुझे फ़ोन किया और पूछा डॉक्टर ये "राम सेतु" क्या है? बिना ये बताए कि ऐसी कोई फिल्म उनको ऑफर हुई है। तो मैंने उनको राम सेतु के इतिहास के बारे में बताया, फिर उन्होंने निर्देशक को उसी समय फ़ोन पर जोड़ा और हमारी बात हुई। अभिषेक ने राम-सेतु के बारे में विस्तार से बताया और निर्देशक अभिषेक के जाने के बाद अक्षय ने मुझसे पूछा कि मैं इस फिल्म पर क्या सोचता हूं। मैंने उन्हें प्रोत्साहित किया कि ये एक उल्लेखनीय विषय है और इस पर आपको काम करना चाहिए और देश को राम-सेतु का इतिहास बताना चाहिए। फिर अक्षय और विक्रम मल्होत्रा की तरफ मुझे इस प्रोजेक्ट पर लगाया गया और कोरोना के समय मेरे लिए ये बड़ा अवसर था। वैसे मैंने दिया कम है पर अभिषेक शर्मा से सीखा ज्यादा है। अक्षय कुमार ने न सिर्फ मुझे राम-सेतु से जोड़ा बल्कि 'OMG-2' के साथ भी उन्होंने मुझे जोड़ा जिसमें यामी गौतम और पंकज त्रिपाठी भी हैं और निर्देशक हैं अश्विन वर्डे जिन्होंने "रोड टू संगम" बनायी थी। मैं हमेशा कहता हूं कि थोड़ा अमीर बनने में अक्षय का मेरे जीवन में बड़ा योगदान रहा है और मैं उनका जीवन भर आभारी रहूंगा। मैं यहां ये भी कहना चाहूंगा की मुझे अक्षय कुमार के साथ पृथ्वीराज, राम-सेतु और ओ माय गॉड-2  में काम करने का मौका मिला और मैं ये कह सकता हूं कि मनुष्य के तौर पर वो एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं। वे बड़ी सहजता से अपनी कमज़ोरियों को स्वीकार कर लेते हैं और ये बड़ी बात है।

Q. पृथ्वीराज के समय आप कपिल शर्मा के शो पर आये थे और आपने कहा था कि कपिल को लेकर एक फिल्म बनाने का विचार है। क्या सचमुच ऐसा कोई विचार है?

A. कपिल एक बहुत प्रतिभावान कलाकार हैं, वे सिर्फ कॉमेडियन नहीं हैं, वे गाते भी अच्छा हैं। मैं उन्हें सुझाव तो नहीं दे रहा हूं, लेकिन हमारे यहां नायक बनने की जो होड़ है अगर वो उसमें शामिल न होकर एक कलाकार बनने की दौड़ में शामिल होंगे तो वो बहुत आगे जायेंगे और सिर्फ मैं ही नहीं बहुत सारे लोग उनको चांस देंगे। मैंने उनके लिए एक विषय सोचा भी था पर पृथ्वीराज की असफलता ने बहुत सारी चीज़ें बदल दीं। सफलता कैसे बदलती है कि पृथ्वीराज की रिलीज़ से पहले 3-जून को मैं पांच फ़िल्में करने वाला था और 5-जून को मेरे पास एक भी फिल्म नहीं थी, तो दो दिन में ये अंतर आ गया। बात यही है कि यदि आप सफल हैं तो आपको कलाकार मिलेंगे, नहीं तो नहीं और फिल्म इंडस्ट्री में हम सब ये बात जानते हैं।  

यहां मैं इस फिल्म के निर्माता आदित्य चोपड़ा के बारे मैं एक बात साझा करना चाहता हूं। फिल्म की रिलीज़ से पहले उन्होंने अपनी टीम के साथ फिल्म देखी। उसके बाद उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, फिल्म अब पूरी हो चुकी है, ये फिल्म सफल भी हो सकती है और असफल भी हो सकती है पर मैं आपसे ये कहना चाहता हूं कि इस फिल्म को लेकर मेरी जो आपसे अपेछाएं थीं उस पर आप खरे उतरे हैं। आपने अच्छा काम किया है और हम लोग साथ में फिर काम करेंगे फिल्म का हश्र जो भी हो। मुझे याद है फिल्म की रिलीज़ के बाद जब कुछ रिपोर्ट्स अच्छी नहीं आ रहीं थीं तो वो अक्षय को बोले कि अगर फिल्म नहीं चलती है तो हम दोनों को कुछ दिन छुट्टी लेकर ये सोचना चाहिए कि कहां गलती हो गई,  पर डॉक्टर साहब अपना काम करते रहेंगे। आदित्य वैसे तो उम्र में मुझसे छोटे हैं पर उनकी पूरे यशराज में एक संरक्षक की भूमिका रहती है। अगर एक बार वो आपसे प्रभावित हो जाते हैं तो वो किसी निंदा से अपना फ़ैसला नहीं बदलते और ये गुण शायद उनको अपने पिता से विरासत में मिला है।  

Q. इतने भव्य सेट पर पृथ्वीराज फिल्माई गयी, कोई ऐसी घटना हुई जो आप साझा करना चाहेंगे?

A. वैसे तो यशराज पर सब कुछ बहुत अच्छे ढंग से होता है तो वहां गलती की सम्भावना नहीं होती पर कभी-कभी सेट पर कुछ न कुछ तो घटित हो ही जाता है। एक बड़ी मज़ेदार घटना याद आती है कि मेरी एक फोटो कहीं छपी जिसमें अक्षय ने मेरी बांह पकड़ रखी है। किसी ने कमेंट किया कि भाई इनको ऐसे क्यों ले जा रहे हो, ये भी एक जिम्मेदार आदमी हैं। दरअसल हुआ यूं था कि हम लोग एक फेरी पर शूटिंग कर रहे थे, जिसकी फ्लोर थोड़ा ऊपर-नीचे थी। वैसे तो मैं हमेशा सावधान रहा पर एक दिन मुझसे गलती हो गयी और मैं गिरने वाला था, तब अक्षय ने मुझे बांह पकड़ कर गिरने से बचाया और उसी समय किसी ने वो  फोटो खींच ली।   

इसी तरह अक्षय शूटिंग के दौरान घोड़े से गिर गए। वैसे तो वो बहुत शानदार घुड़सवारी करते हैं, पर किसी विशेष जूतों के कारण ये हादसा हुआ। मैं तो चिंतित हो गया था कि अब शूटिंग कैसे होगी, पर कोई परेशानी नहीं हुई, वो तुरंत उठ कर खड़े हो गए और शूटिंग फिर से शुरू हो गयी।    

एक और बात कि अक्षय कुमार के हाथ की सफाई गज़ब की है। वो आपके हाथ से घड़ी निकाल लेंगे और आपको पता भी नहीं चलेगा। दूसरी बात की वो ताश बहुत अच्छा खेलते हैं, पर उसमें वो कभी पैसा लगा कर नहीं खेलते। क्योंकि वो कहते हैं की मुझे आप हरा नहीं पाएंगे, हां बाकी चीज़ों पर वे शर्त लगा सकते हैं।                            
      
Q. आपका OTT पर क्या विचार है? क्या लगता है कि ये लम्बी रेस का घोड़ा है और इससे बेहतर कॉन्टेंट क्रिएट करने में मदद मिलेगी?

A. मुझे लगता है, ये ठहरेगा और इसे ठहरना चाहिए। एक बार जावेद अख़्तर साहब से बात हो रही थी। उन्होंने कहा कि हमारी इंडस्ट्री हम लोगों को वो अवसर नहीं दे रही है जो हमें चाहिए। उन्होंने फिल्मों के संवाद लिखने बंद कर दिए, क्योंकि लोग एक निश्चित ढांचे में ही सब कुछ चाहते थे, फिर गीत लिखना शुरू किया और वो भी रुक गया क्योंकि वहां भी वही बात होने लगी, टेलीविज़न का ढर्रा किसी और दिशा मैं था तो ऐसे में OTT रचनात्मकता के लिए एक सशक्त माधयम बनकर आया। आज OTT  की बदौलत आप कहानी अपने हिसाब से (4, 7, 10 एपिसोड में) दिखा सकते हैं। इसमें आपको समय मिलता है कि आप आराम से अपनी रचनात्मकता का इस्तेमाल करें। इसके अलावा OTT से बहुत सारे प्रतिभाशाली कलाकारों को मौका मिला। मुझे लगता है कि ये समय नयी प्रतिभाओं के लिए बहुत ही अच्छा समय है।   

Q. OTT में गाली-गलोज़ की भाषा के इस्तेमाल पर आप क्या कहेंगे?

A. हां मैं ज़रूर कहना चाहता हूं, क्योंकि मैंने इस विषय पर भी बड़ी गालियां खायीं है। 'मोहल्ला अस्सी' में मैंने गालियों का प्रयोग किया है और इस पर जब नकारात्मक प्रतिक्रिया आयी और सेंसर बोर्ड ने भी इस पर आपत्ति जताई तो मैंने इसका अध्ययन किया। मुझे पता चला कि हमारे शिलालेखों पर भी गालियां खुदी हुई हैं। मैंने संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान डॉ राधा वल्लभ त्रिपाठी से पूछा कि क्या संस्कृत में गालियों का उल्लेख है? तो उन्होंने बताया कि हां और मेरे आग्रह पर वो एक किताब भी लिख रहें हैं, जो जल्दी ही प्रकाशित होने वाली है। तो मेरा यही कहना है कि अगर आप यथार्थवादी समाज दिखाना चाहते हैं तो इन गालियों का इस्तेमाल स्वाभविक है और बहुत हद तक ये दर्शकों पर भी निर्भर करता है। जिस दिन दर्शक ये देखना बंद कर देगा, उस दिन ये अपने आप समाप्त हो जायेगा। कई बार एक चरित्र को दिखाने के लिए भी गालियों का सहारा लेना पड़ता है।  

Q. निजी जीवन में आप कैसे हैं? कठोर या सरल?

A. मैं बहुत सरल हूं। पहले मैं बहुत दकियानूसी था, पर धीरे-धीरे बदल गया। समय के साथ-साथ इंसान बदल जाता है। मेरी बेटी मेरी मित्र है और हम अक्सर उससे उन विषयों पर भी बात करते हैं जिन पर लोग अक्सर बात नहीं करते हैं या नहीं करना चाहते।     
 
Q. आप गंभीर हैं या हंसमुख?

A. अरे नहीं, मैं बहुत हंसमुख हूं। मेरा मानना है कि अगर आप बच्चे जैसे रहेंगे तो आप जल्दी बूढ़े नहीं होते।  
 
Q. वेजीटेरियन या नॉन वेजीटेरियन?

A. मैं एकदम शुद्ध शाकाहारी हूं। कई बार मैं पांच-सितारा होटल में रुका और भोजन बाहर किया क्योंकि मैं शुद्ध शाकाहारी हूं और जहां मांस पकता था, वहां खाना पसंद नहीं था, पर अब मैं होटल में ही शाकाहारी खा लेता हूं। थोड़ा बदल गया हूं।     

Q. शहर या गांव पसंद है?

A. बिलकुल गांव! मैं तो अक्सर गांव जाना चाहता हूं, पर मेरी पत्नी कहती हैं मेरे लिए पहले गांव में कोई काम ढूंढ़ दो, फिर चलेंगे।  

Q. आपको पुराने गाने पसंद हैं या नए गाने?

A. मैं ज्यादा गाने नहीं सुनता, पर अगर आप मुझे चॉइस देंगीं तो मैं पुराने गाने सुनना पसंद करूंगा।  

Q. क्या पसंद है, मीठा या नमकीन?  

A. मीठा

Q. ऐसा कोई देश या शहर, जहां आप अभी तक नहीं गए हों पर जाना चाहते हों?

A. ऐसी कोई जगह नहीं है। जगहों को लेकर मुझे कोई ख़्वाहिश नहीं है। आपको आश्चर्य होगा कि मैं पेरिस गया और एफेल टावर देखने नहीं गया, क्योंकि वो मेरे होटल से दिखाई दे रहा था और फिर मैं अपनी फिल्म के लिए गया था घूमने के लिए नहीं। तो मैं अक्सर घर पर ही रहता हूं और मुझे कोई शौक नहीं है बड़ी-बड़ी इमारतों को देखने का।

Q. हमारे पढ़ने वालों के लिए आप क्या सन्देश देना चाहेंगे?

A. मैं यही कहना चाहता हूं कि हम एक ऐसे युग में जी रहें हैं जहां हम देखते ज़्यादा हैं और पढ़ते कम हैं, लेकिन पढ़ने से अच्छा कुछ भी नहीं है। मुझे अगर पढ़ने का अवसर मिलता है तो मैं ख़ूब पढता हूं और और सबसे यही कहना चाहता हूं कि पढ़ने में बहुत आनंद है और मौका मिले तो पढ़ने की आदत डालें।

Q. आप  इतना पढ़ते हैं, क्या आप लेखन भी करते हैं?

A. नहीं, इतने लोग लिख रहें हैं इसलिए मैं सिर्फ पढ़ना चाहता हूं पर मैं कविताएं नहीं पढ़ता।

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