कई साथी कलाकार किरदार रिपीट न करने के चलते घर पर बैठे हैं, मैं कम से कम नजर तो आ रहा हूं: राकेश श्रीवास्तव

एंटरटेनमेंट डेस्क. टीवी शो 'लापतागंज' में लल्लन जी PWD वाले का कॉमेडी किरदार निभाकर घर-घर में मशहूर हुए एक्टर राकेश श्रीवास्तव ने साल 2010 में रिलीज हुई फिल्म 'न घर के न घाट के' से हिंदी सिनेमा में डेब्यू किया था। हाल ही में उनकी फिल्म 'वो 3 दिन' रिलीज हुई है, जिसमें वे संजय मिश्रा के साथ नजर आ रहे हैं। एशियानेट हिंदी से हुई इस एक्सक्लूसिव बातचीत में राकेश ने फिल्म और बॉलीवुड व ओटीटी से जुड़े कई विषयों पर बात की। पेश हैं उनसे हुई बातचीत के कुछ प्रमुख अंश...

Q. इन दिनों ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनने वाली फिल्में और वेब सीरीज बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। आपकी फिल्म 'वो 3 दिन' भी ऐसी ही पृष्ठभूमि पर आधारित है। आपने क्या सोचकर इस फिल्म पर काम करने के लिए हामी भरी?
A.
इस फिल्म के डायरेक्टर राज आशू और राइटर दोनों को ही मैं काफी पहले से जानता हूं। तो ऐसी ही बात हुई कि एक फिल्म बनाना है तो मैंने कहा ठीक है। पहले तो आपको बता दूं कि इस फिल्म के डायरेक्टर राज आशू हिंदुस्तान के उन गिने-चुने म्यूजिक डायरेक्टर में शामिल हैं, जो फिल्म डायरेक्टर बने हैं। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। तो पहली वजह तो यही थी कि एक म्यूजिक डायरेक्टर जब फिल्म बनाएगा तो अलग ही नजरिए से बनाएगा। क्योंकि अगर आप देखें तो म्यूजिक डायरेक्टर विशाल भारद्वाज भी अलग तरह की फिल्में बनाने के लिए पहचाने जाते हैं। इसके बाद जब राज ने हमें कहानी सुनाई तो हमें लगा कि ये कहानी हम में से हर एक की कहानी है। कहानी यह है कि आपके जीवन में कुछ पल और दिन ऐसे आते हैं कि आप कहते हैं कि ये दिन कभी भूल नहीं पाएंगे। यह एक आम आदमी, एक रिक्शेवाले के जीवन के उन 3 दिनों की कहानी जो उसका जीवन बदल देते हैं। जब हमने यह कहानी सुनी तो हमें लगा कि ऐसे विषयों पर फिल्में बननी चाहिए।

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Q. फिल्म में एक बुंदेली लोक गीत भी है। इसे लेकर आने का आइडिया किसका था?
A.
फिल्म तो उत्तर प्रदेश में शूट हुई है, पर जो हमारे प्रोड्यूसर हैं पंचम सिंह उनका होम टाउन मप्र का दतिया है और उनकी पढ़ाई-लिखाई ग्वालियर में हुई। चूंकि यह प्रोड्यूसर और डायरेक्टर दोनों की ही पहली फिल्म है, तो यह उनकी इच्छा थी कि वे अपनी पहली फिल्म में लोक गीत लेकर आए। इस गाने को खुद पंचम सिंह ने ही गाया है।

Q. इन दिनों स्टायर फिल्में ज्यादा बन रही है। इस तरह के किरदार करने में कैसी फीलिंग आती है? क्या आपको लगता है कि इस तरह के किरदार समाज में कुछ सुधार ला सकते हैं?
A.
लॉकडाउन ने लोगों को जीवन को नए तरीके से जीने का नजरिया दिया। टीवी पर लॉकडाउन के दौरान पुराने शोज दिखाए जा रहे थे और नई फिल्में रिलीज नहीं हो रही थीं। तो इस दौरान वो ओटीटी जिसे लॉकडाउन से पहले बमुश्किल 7 प्रतिशत लोग देखते थे वो घर में टीवी से कनेक्ट होने लगा। अब ओटीटी पर जो कंटेंट पेश किया जाता है, वो लार्जर देन लाइफ होता है। टीवी पर आज भी सास-बहू का कल्चर इतना हावी है कि आज सब टीवी जैसे कॉमेडी चैनल पर भी सास-बहू वाले शोज आने लगे हैं। तो कहने का मतलब यह है कि समय के साथ बदलाव आता है।

Q. ओटीटी आने के बाद जो नए आर्टिस्ट हैं, उनको ज्यादा मौका मिला है या जो पुराने आर्टिस्ट हैं उनका नुकसान हुआ है?
A.
नए आर्टिस्ट को तो मौका मिला ही है पर सिनेमा के जो कई एक्टर्स मीडियम फिल्मों के स्तर पर थे उनके लिए और जो अच्छे परफॉर्मर्स थे उनके लिए एक अच्छा मीडियम साबित हुआ है।

Q. शुरुआती दौर में ओटीटी पर काफी अश्लीलता परोसी गई पर आज यह काफी फिल्टर हो चुका है। भविष्य में इसे किस तरह से देखते हैं?
A.
जैसा कि हमने अभी डिस्कस किया कि हमारे यहां ओटीटी कोई देखता ही नहीं था पर यह फॉरेन में बहुत प्रचलित था। तो मेरा मनना है कि सारी चीजें इस पर निर्भर करती हैं कि आपका कल्चर और आपकी सभ्यता क्या है? उनके यहां नंगापन है। उनके यहां गाली कॉमन है। उनके यहां जो है वो हमारे यहां नही हैं। और ओटीटी पर अमूमन यूनिवर्सल कंटेंट बनाया जाता है। इसके बाद जब कोविड के चलते ओटीटी देश के घर-घर में पहुंचने लगा तो उसने मेकर्स को आम आदमी से जुड़ा हुआ कंटेंट बनाने के लिए मजबूर किया। क्योंकि वो यह समझ गए कि अगर पूरा परिवार ओटीटी देख रहा है तो कंटेंट भी वैसा ही साफ-सुथरा देना होगा। आप  'पंचायत', 'महारानी' और 'घर-वापसी' जैसे शोज देखिए इन शोज में कोई अश्लीलता नहीं है। क्योंकि वो चाहते हैं कि दर्शक उन्हें देखें।

Q. बीते कुछ सालों में किरदारों में भी काफी बदलाव आए हैं। पहले फिल्मों में कॉमेडी किरदार होते थे पर अब सटायर किरदार होने लगे हैं? आपको क्या लगता है यह बदलाव क्यों आया?
A.
क्योंकि, व्यंग्य अपने आप में एक जबरदस्त माध्यम है। हालांकि, लोग कॉमेडी को पहले भी पसंद करते थे और अभी भी कर रहे है। पर आज कल जो है किसी भी गंभीर मुद्दे को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए सटायर का ही उपयोग किया जाता है।

Q. लल्लन जी का जो किरदार है, उसने एक तरीके से आप पर कॉमेडी एक्टर का एक स्टाम्प टाइप का लगा दिया है। क्या इसे तोड़ने के लिए ही 'मेटामॉर्फोसिस' जैसी शॉर्ट फिल्म में आपने गंभीर किरदार निभाया था?
A.
वैसे तो मैं तोड़ने में नहीं, जोड़ने में भरोसा करता हूं पर चूंकि मेरा लल्लन वाला किरदार पॉपुलर हुआ तो मैंने 16-17 सालों तक सब टीवी पर कॉमेडी शोज ही किए। इस दौरान कई लोगों ने मुझसे कहा कि आप एक थिएटर आर्टिस्ट हैं और एक थिएटर आर्टिस्ट वर्सेटाइल होता है तो आप सिर्फ कॉमेडी में बंधकर क्यों रह गए? तो मैं उनसे कहता था कि भाई साहब जब मैं उस शहर में पहुंचा था तो मुझे मेरे पिता जी के अलावा कोई नहीं जानता था। इस किरदार ने ही मुझे पहचान दिलाई तो आज मैं भले ही कॉमेडी कर रहा हूं पर कम से कम कुछ तो कर रहा हूं न? मेरे साथ के कई ऐसे कलाकार है जो किरदारों को रिपीट न करने के चक्कर में वापस घर चले गए तो मैं कम से कम दिखता तो हूं न? इसलिए जरूरी यह है कि आज में लल्लन जी की वजह से कम से कम पहचाना तो जाता हूं। बहरहाल, इस शॉर्ट फिल्म का राइटर खुद चलकर मेरे पास आया और बोला कि सर मैंने आपको काम देखा है और मैं चाहता हूं कि आप यह किरदार करो क्योंकि मुझे यह महसूस होता है कि आपके अंदर एक गंभीर व्यक्ति भी छिपा हुआ है। इसके अलावा हाल ही में रिलीज हुई अभिषेक बच्चन की फिल्म 'दसवीं' में भी मैंने थोड़ा अलग किरदार किया है तो कहने का मतलब यह है कि मुझे जब भी मौका मिला मैंने हर तरह के किरदार निभाने की कोशिश की है। जो रोल दिल को छुएगा मैं वो सभी रोल करूंगा।

Q. आप क्लीन शेव से मूछों में कब आ गए?
A.
ये लॉकडाउन की देन है। उस दौरान मैंने कुछ पिता के किरदारों के लिए लुक टेस्ट दिए पर मेरा क्लीन शेव लुक देखकर लोगों ने मुझे यह कहकर रिजेक्ट कर दिया कि मैं किसी एंगल से 20-22 साल के लड़के का बाप नहीं लगता तो फिर मैंने लॉकडाउन का फायदा उठाकर मूछें उगा लीं।

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