जनजातीय गौरव दिवस की गाथा: बिरसा मुंडा से कान्हू मुर्मू तक..आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों के वीरता की कहानी

भारत की आजादी में आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हीं के बलिदान को याद करने के लिए 15 नवंबर को जनजातीय गौरव दिवस’ मनाया जा रहा है। आजादी के 75 साल होने के मौके पर केंद्र सरकार ने इस दिन को मनाने की मंजूरी दी है।

Asianet News Hindi | / Updated: Nov 15 2022, 07:00 AM IST

करियर डेस्क : आज 15 नवंबर को बहादुर आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित करने के लिए ‘जनजातीय गौरव दिवस’ (Janjatiya Gaurav Divas 2022) मनाया जा रहा है। आज ही के दिन भगवान बिरसा मुंडा (Birsa Munda) की जयंती है। इस दिन का उद्देश्य सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण और राष्ट्रीय गौरव, वीरता के साथ ही आतिथ्य के भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने में आदिवासियों के प्रयासों को आगे ले आना है। भारत की आजादी में कई आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रिटिश शासन के खिलाफ कई आदिवासियों ने आंदोलन चलाए। इनमें तामार, संथाल, खासी, भील, मिजो और कोल आदिवासी समुदाय शामिल है। जनजातीय गौरव दिवस के मौके पर आइए जानते हैं महान आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों की गाथा..  

बिरसा मुंडा
15 नवंबर, 1875 को भगवान बिरसा मुंडा का जन्म हुआ था। वे मुंडा जनजाति से आते थे। उन्होंने 19वीं शताब्दी के अंत में आधुनिक झारखंड और बिहार के आदिवासी क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय आदिवासी धार्मिक सहस्त्राब्दि आंदोलन का नेतृत्व किया था और अंग्रेजी हुकूमत के छक्के छुड़ा दिए थे।

शहीद वीर नारायण सिंह
छत्तीसगढ़ में सोनाखान का गौरव माने जाने वाले शहीद वीर नारायण सिंह का बलिदान आज भी गर्व से याद किया जाता है। उन्होंने 1856 में जब अकाल पड़ा, तब व्यापारियों के अनाज को लूट लिया और उसे गरीबों में बांट दिया था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वीर नारायण सिंह छत्तीसगढ़ से बलिदान देने वाले पहले वीर थे।

अल्लूरी सीता राम राजू
4 जुलाई, 1897 को आंध्र प्रदेश में भीमावरम के मोगल्लु गांव में जन्में अल्लूरी सीता राम राजू ने अंग्रेजों के खिलाफ ‘रम्पा विद्रोह’ का नेतृत्व किया था। उन्होंने विशाखापत्तनम और पूर्वी गोदावरी के आदिवासी लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने के लिए एकजुट किया था। 

रानी गौंडिल्यू
नगा समुदाय की आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता रानी गौंडिल्यू ने भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया था। 13 साल की ही थीं, जब चचेरे भाई हाइपौ जादोनांग के हेराका धार्मिक आंदोलन में शामिल हुईं थी। नगा लोगों की स्वतंत्रता यात्रा में जो आंदोलन हुआ था, उसका वे हिस्सा थीं। मणिपुर क्षेत्र में गांधी जी के संदेश का उन्होंने जमकर प्रसार किया था।

सिद्धू और कान्हू मुर्मू
30 जून, 1855 को दो संथाल भाइयों सिद्धू और कान्हू मुर्मू ने 10,000 संथालों को संगठितर किया और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की शुरुआत कर दी थी। उन्होंने शपथ लिया था कि अंग्रेजों को अपनी मातृभूमि से भगाकर ही दम लेंगे। मुर्मू भाइयों की बहनों ने फूलो और झानो ने विद्रोह में भी अहम योगदान दिया था।

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