अकाली दल से अलग होने के बाद भाजपा ने खुद को खड़ा किया है। पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi), गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah), रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा (JP Nadda) ने खुद प्रचार की कमान संभाल रखी है।
मनोज ठाकुर, चंडीगढ़। मतदान में अब जबकि चार दिन बाकी रह गए हैं, तो पंजाब का चुनावी परिदृश्य साफ होता जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने पंजाब चुनाव (Punjab Election) में जोरदार वापसी की है। अकाली गठबंधन से अलग होकर पार्टी खुद अपने पांवों पर खड़ी हो रही है। तीन कृषि कानूनों में भाजपा का जो विरोध था, वह अब नजर नहीं आ रहा है। कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt Amarinder Singh) की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस के साथ गठबंधन कर भाजपा ने जहां बड़े चेहरे को अपने साथ जोड़ा, वहीं सुखदेव सिंह ढींढसा (sukhdev singh dhindsa) की पार्टी अकाली दल संयुक्त के साथ भी गठबंधन कर पंजाब के पंथक वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश की है। इसका परिणाम यह रहा कि भाजपा तेजी से मजबूत हो रही है।
अकाली दल से अलग होने के बाद भाजपा ने खुद को खड़ा किया है। पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi), गृहमंत्री अमित शाह (Amit Shah), रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह (Rajnath Singh) और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा (JP Nadda) ने खुद प्रचार की कमान संभाल रखी है। इसका फायदा भाजपा के साथ-साथ सहयोगी दलों को भी मिल रहा है। इस बार सबसे ज्यादा नुकसान यदि किसी को होता नजर आ रहा है तो वह है- कांग्रेस। कैप्टन अमरिंदर सिंह के पार्टी छोड़ने के बाद नेताओं के टूटने का जो सिलसिला चला, वह अभी तक थमने का नाम नहीं ले रहा है। कांग्रेस के 16 विधायक पार्टी छोड़ गए हैं। इसमें 11 दूसरे दलों से या फिर आजाद उम्मीदवार के तौर पर चुनाव भी लड़ रहे हैं।
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सबसे ज्यादा मुश्किलें कांग्रेस की बढ़ीं
सीएम फेस को लेकर सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) और चन्नी (Charanjit Singh Channi) के बीच अभी भी तनातनी जारी है। यह अलग बात है कि मंच पर दोनों नेता सब कुछ सामान्य दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके बाद भी गाहे-बगाहे सीएम चेहरा ना बनने की सिद्धू की टीस सामने आ ही जाती है। कैप्टन के कांग्रेस से जाने के बाद राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी (Priyanka Gandhi) ने प्रचार की कमान संभाल रखी है। पूरी कोशिश कर रहे हैं कि पार्टी को मजबूत किया जाए। लेकिन, स्थानीय नेताओं का आपस का विवाद और पार्टी की फूट इसमें सबसे बड़ी अड़चन बन कर सामने आ रही है। इससे एक बात तो साफ होती नजर आ रही है कि पार्टी इस बार पिछली 77 सीटों के आंकड़े से पीछे रह सकती है।
फिर भी कड़ी टक्कर दे रही कांग्रेस
चरणजीत सिंह चन्नी ने सत्ता विरोधी लहर को खत्म करने की दिशा में बड़ा काम किया। पार्टी का पारंपरिक वोट बैंक है। सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के बाद पार्टी काफी आक्रामक हो गई थी। बेअदबी कांड में कार्रवाई कर सिख वोटर में अपनी पैठ बनाई।
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इसलिए चिंता में कांग्रेस के रणनीतिकार
कैप्टन के पार्टी से जाने का सीधा नुकसान हुआ है। सीएम विवाद से पार्टी की छवि मतदाता के बीच काफी बिगड़ी है। सिद्धू और चन्नी अपनी अपनी सीटों पर फंस गए हैं। इससे वह पार्टी के लिए बाकी जगह प्रचार नहीं कर पा रहे हैं। पार्टी में गुटबाजी भी अक्सर उभर कर सामने आ रही है।
AAP समर्थकों को वोट में तब्दील करना चुनौती
पिछले विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी आम आदमी पार्टी के प्रति आम लोगों का रुझान काफी है। समर्थक वोकल होकर आप की बात कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि उसे वोट में तब्दील करने का काम आप नहीं कर पा रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि पार्टी का कैडर इतना मजबूत नहीं है। आप संयोजक अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और पंजाब के सीएम फेस भगवंत मान (Bhagwant Mann) को छोड़ दिया जाए तो यहां कोई ऐसा नेता नहीं है, जो मतदाताओं को पार्टी के साथ मतदान के दिन तक जोड़ कर रख सके।
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आप को क्यों आ रही दिक्कत?
आम आदमी पार्टी से दिल्ली टैग नहीं हट रहा है। विपक्ष एक ही आरोप लगाता है कि केजरीवाल दिल्ली से पंजाब को चलाना चाह रहे हैं। भगवंत मान को सीएम फेस बनाया है। इसके बाद भी पार्टी के साथ पंजाब का फ्लेवर नजर नहीं आ रहा है। रही-सही पार्टी को संगठन की भारी कमी का सामना करना पड़ रहा है। भगवंत मान और केजरीवाल दो बड़े फेस हैं।
आप के पक्ष में क्या?
पंजाब का स्विंग वोटर सीधे आप के खाते में जा रहा है। पार्टी का सोशल मीडिया विंग बहुत सक्रिय है। इसके साथ ही प्रचार-प्रसार का तरीका बेहद प्रोफेशनल है। पांरपरिक पार्टियों से जो वोटर निराश हैं, उनके सामने आप एक विकल्प बनकर उभरी है। युवा वोटर खुद को आप के साथ जोड़ रहा है।
अकाली-बसपा गठबंधन, जो मिलेगा- वही प्लस
अकाली दल का पिछले विधानसभा चुनाव में सबसे निराशाजनक प्रदर्शन रहा। इसके बाद भी पार्टी को 26 प्रतिशत वोट मिले। प्रदेश में गहरी पकड़ है। भाजपा से गठबंधन टूटा तो बसपा के साथ हाथ मिलाया। बसपा यदि शेड्यूल वोटर को अकाली दल के पक्ष में मतदान करा जाती है तो इस बार अकाली दल की स्थिति खासी मजबूत हो सकती है। पार्टी सधे तरीके से चुनाव प्रचार करते हुए खुद को मजबूत करने की कोशिश में लगी है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने जिस तरह से बिक्रमजीत सिंह मजीठिया पर व्यक्तितगत हमला बोला, इससे अकाली दल के प्रति पंजाब के मतदाता का रुझान तेजी से बढ़ रहा है।
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गठबंधन का मजबूत पक्ष
मजबूत कैडर है। जिसके दम पर पार्टी आक्रामक चुनाव प्रचार अभियान चलाए हुए है। पंथक वोट पार्टी के साथ है, जो अकाली दल की सबसे बड़ी मजबूती है। टकसाली नेता ब्रह्मपुरा जैसे बड़े चेहरे फिर से अकाली दल के मंच पर आ गए हैं। बसपा का साथ पार्टी को मजबूती प्रदान करता नजर आ रहा है। सुखबीर सिंह बादल ने सभी को साथ जोड़ने की कोशिश की है। सुखबीर इस बार अपना बेस्ट दे रहे हैं।
अकाली दल के लिए फिर भी सब कुछ ठीक नहीं
तीन कृषि कानूनों को लेकर अकाली दल की आलोचना होती रहती है। क्योंकि बेअदबी कांड के दाग को धोने में अकाली दल कामयाब नहीं हुआ है। इस वजह से सिखों का एक बड़ा तबका अभी भी इनसे नाराज है। पंथक पार्टी पर एक ही परिवार यानी बादल परिवार का वर्चस्व है, इस वजह से भी अकाली दल की आलोचना हो रही है। प्रकाश सिंह बादल बुजुर्ग हो गए हैं। सुखबीर बादल पार्टी को ग्राउंड तक कनेक्ट नहीं कर पा रहे हैं।
भाजपा शून्य से शुरू होकर शिखर पर नजर रखे
यह चुनाव भाजपा के पक्ष में सबसे ज्यादा है। क्योंकि पार्टी का वोट बैंक तो बढ़ता नजर आ ही रहा है। इसके साथ ही ढींढसा और कैप्टन के दम पर पंथक वोटर में अपनी पैठ बनाई है। भाजपा चुनाव तो विधानसभा का लड़ रही है, लेकिन नजर लोकसभा पर भी है। क्योंकि अब पार्टी को प्रदेश में मजबूत आधार मिल गया है। इसके दम पर पार्टी प्रदेश में स्वतंत्र रूप से खड़ी हो सकती है। हिंदू वोटर पहले ही भाजपा के साथ है। इस तरह से भाजपा ने अपनी स्थिति में सुधार ही किया है। कैप्टन जैसे अनुभवी नेता को साथ लिया, इसके साथ ही ढींढसा को जोड़कर सिख वोटर्स में सीधी सेंध लगाने की कोशिश की है। भाजपा ने जिस तरह से शुरुआत की है, यह काफी आगे तक जाएगी। अलग-अलग पार्टियों के बागियों को जोड़ कर अपना कुनबा भी बढ़ाया है।
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संयुक्त किसान मोर्चा, हल्ला ज्यादा, जमीन पर कुछ नहीं
मोड़ मंडी से लड़ रहे लक्खा सिधाना की सीट को छोड़ दिया जाए तो बाकी जगह मोर्चा ज्यादा असरकारक होता नजर नहीं आ रहा है। वैकल्पिक राजनीति की शुरूआत का दम भरने वाले मोर्चा के पास पंजाब की 117 सीटों के लिए उम्मीदवार तक नहीं हैं। समराना से बलबीर राजेवाल खुद फंसे हुए हैं। कुछ सीटों पर मोर्चा ठीक ठाक उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हो सकता है। देखना यह होगा कि चुनाव के बाद मोर्चा पंजाब की राजनीति को लेकर कितना गंभीर रहता है।