एक गलती ने 25 कमरों वाले बंगले और 7 लग्जरी कारों के मालिक भगवान दादा को कर दिया था कंगाल, चॉल में हुआ था निधन

एंटरटेनमेंट डेस्क. भारत के पहले डांसिंग सुपरस्टार माने जाने वाले भगवान दादा (Bhagwan Dada) की आज 109वीं जयंती है। 1 अगस्त 1913 को अमरावती में जन्मे भगवान दादा का असली नाम भगवान आबाजी पालव था। उन्हें प्यार से लोग सिर्फ भगवान भी बोला करते थे। लेकिन जितनी भगवान दादा की लोकप्रियता थी, उतनी ही दर्द भरी उनकी कहानी है। गरीबी से अमीरी तक का सफ़र तय करने वाले भगवान के पास कभी समंदर किनारे आलिशान बंगला हुआ करता था। सप्ताह के दिन के हिसाब से उनके पास 7 कारें थीं। लेकिन जहां उन्होंने अंतिम सांस ली वह एक चॉल थी। आइए आपके बताते हैं भगवान दादा गरीब से अमीर और फिर गरीब बनने की पूरी कहानी...

Gagan Gurjar | Published : Aug 1, 2022 4:30 AM IST / Updated: Aug 01 2022, 10:07 AM IST

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एक गलती ने 25 कमरों वाले बंगले और 7 लग्जरी कारों के मालिक भगवान दादा को कर दिया था कंगाल, चॉल में हुआ था निधन

भगवान दादा के पिता मुंबई के एक टेक्सटाइल मिल में काम करते थे। उन्होंने खुद भी इसी मिल में मजदूर के रूप में काम किया। लेकिन वे सिनेमा को लेकर जुनूनी थे। उन्होंने साइलेंट फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिका से अपने एक्टिंग करियर की शुरुआत की। 

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मूक फिल्म 'क्रिमिनल' से पर्दे पर कदम रखने वाले भगवान दादा कॉमेडी के बेताज बादशाह बन गए। भगवान दादा की कड़ी मेहनत रंग लाई। लोग उनके काम करने के तरीके से प्रभावित होते थे। आम लोगों, खासकर मजदूरों के बीच उनके द्वारा निभाए गए साधारण किरदार काफी पॉपुलर हुए। इसके बाद भगवान दादा ने अपनी फ़िल्में बनाने का फैसला लिया।

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भगवान दादा ने जागृति पिक्चर्स नाम से खुद का प्रोडक्शन हाउस  शुरू किया और फिर 1947 में उन्होंने चेम्बूर में जागृति स्टूडियो बनाया। उन्होंने फिल्म 'अलबेला' का निर्देशन और निर्माण किया, जो सुपरहिट रही। फिल्म 50 सप्ताह से ज्यादा सिनेमाघरों में चली।  इसके गाने 'शोला जो भड़के' और 'भोली सूरत दिल के खोते' इतने लोकप्रिय हुए कि आज भी लोग इन्हें सुनना पसंद करते हैं।

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भगवान दादा को सफलता और शोहरत मिलती जा रही थी। उन्होंने मुंबई के पॉश इलाके में सी-फेसिंग बंगला खरीद लिया, जिसमें 25 कमरे थे। इतना ही नहीं, उनके पास 7 लग्जरी कारें थीं और वे सप्ताह के हर दिन बदल-बदलकर उनका इस्तेमाल किया करते थे।

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वक्त ने करवट बदली। भगवान दादा ने 'अलबेला' के जादू को फिर से बिखेरने के उद्देश्य से 'लबेला' और 'झमेला' नाम की फ़िल्में बनाईं, जो बुरी तरह फ्लॉप हुईं। फिर 'सहमे हुए सपने' आई, जो पहले शो में ही फेल हो गई।

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फिर भगवान दादा किशोर कुमार के साथ 'हंसते रहना' का निर्माण करने लगे। उन्होंने इसके लिए भारी पैसा लगाया। पत्नी के गहने गिरवी रख दिए और पूरी जमा-पूंजी इस पर खर्च कर दी। लेकिन किशोर कुमार ने बीच फिल्म में हो टाल-मटोल करना शुरू कर दिया। वे पागलों जैसा व्यवहार करने लगे और भगवान दादा को यह फिल्म बीच में ही बंद करनी पड़ी।

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भगवान दादा के कई दोस्त थे, जो उनके खर्चे पर पार्टी करते थे। शराब पीते थे। धीरे-धीरे उन्होंने भी उनका साथ छोड़ दिया। आर्थिक तंगी से जूझ रहे भगवान दादा को अपना बंगला और कारें बेचनी पड़ीं। पूरा परिवार दादर के एक चॉल के दो कमरों में रहने लगा। अंतिम वक्त में भगवान दादा का ख्याल उनकी अविवाहित बेटी और छोटे बेटे का परिवार रख रहा था।

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पांच दशक तक फिल्म इंडस्ट्री पर राज और 600 से ज्यादा फ़िल्में करने वाले भगवान दादा का निधन 4 फ़रवरी 2002 को दादर के चॉल में गरीबी से लड़ते हुए हुआ। बताया जाता है कि जिंदगी के अंतिम कुछ सालों में उन्हें सिने आर्टिस्ट्स एसोसिएशन और इंडियन मोशन पिक्चर प्रोड्यूसर्स एसोसिएशन की ओर से 3000 और 5000 हजार रुपए का भुगतान किया गया था।

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