कभी घर से भागकर आया मुंबई करने लगा गुंडागर्दी फिर बन गया बॉलीवुड का विलेन, ऐसे बदली किस्मत

मुंबई. साल 1976 में रिलीज हुई फिल्म 'कालीचरण' का फेमस डायलॉग 'लेकिन एक बात मत भूलिए डीएसपी साहब...कि सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है। और, इस शहर में मेरी हैसियत वही है, जो जंगल में शेर की होती है।' तो सभी को लगभग याद होगा। जब भी ये डायलॉग सुनाई पड़ता है तो एक्टर अजीत खान याद आ जाते हैं। ये वो दौर था जब हीरो और विलेन बराबर की टक्कर के हुआ करते थे। ऐसे में अजीत साहब का बोलने का अंदाज सधा था कि लोग उन्हें देखकर बस 'वाह' कह पाते थे। आज वो भले ही इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी यादें अब भी लोगों के जहन में हैं। उनकी 22वीं पुण्यतिथि पर उनसे जुड़ी बातें बता रहे हैं...

Asianet News Hindi | Published : Oct 22, 2020 5:11 AM IST

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कभी घर से भागकर आया मुंबई करने लगा गुंडागर्दी फिर बन गया बॉलीवुड का विलेन, ऐसे बदली किस्मत

हिंदी सिनेमा को शायद पहली बार एक ऐसा विलेन मिला था, जो काफी सौम्य और प्रभावशाली ढंग से विलेन के किरदार को फिल्मी पर्दे पर जीवित कर देता है। अजित साहब का असली नाम हामिद अली खान था। वो बचपन से ही एक्टर बनना चाहते थे और इसी का सपना लिए वो घर से भागकर मुंबई आ गए थे। अजीत पर अपने एक्टर बनने के सपने को पूरा करने का जुनून इस कदर सवार था कि उन्होंने किताबें तक बेंच डाली थीं। 

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अजीत ने अपने फिल्मी सफर की शुरुआत साल 1940 में की थी। कुछ समय तक उन्होंने बतौर हीरो फिल्मों में काम किया, लेकिन वो फ्लॉप रहे। इसके बाद उन्होंने फिल्मों में विलेन की भूमिका निभाना शुरू कर दिया।

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विलेन के तौर पर ना सिर्फ उनके किरदारों को सराहा गया बल्कि उनके कई डायलॉग और वन लाइनर जबरदस्त हिट हुए। आज भी जब अजीत के नाम का जिक्र होता है तो अनायास ही 'मोना डार्लिंग', 'लिली डोंट बी सिली' और 'लॉयन' जैसे डॉयलॉग जुबां पर आ जाते हैं। अजीत ने विलेन और उसके किरदार की ऐसी परिभाषा और लुक गढ़ा जो हमेशा के लिए हिंदी सिनेमा के इतिहास में दर्ज हो गया है।
 

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अजीत का फिल्मी सफर आसान नहीं रहा। मुंबई आने के बाद उनका कोई ठोस ठिकाना नहीं था। काफी वक्त तक उन्हें सीमेंट की बनी पाइपों में रहना पड़ा, जिन्हें नालों में इस्तेमाल किया जाता है। उन दिनों लोकल एरिया के गुंडे उन पाइपों में रहने वाले लोगों से भी हफ्ता वसूली करते थे और जो भी पैसे देता उसे ही उन पाइपों में रहने की इजाजत मिलती थी।

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बताया जाता है कि एक दिन एक लोकल गुंडे ने अजीत से भी पैसे वसूलना चाहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया और उस लोकल गुंडे की जमकर धुनाई की। उसके अगले दिन से अजीत खुद लोकल गुंडे बन गए। 

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इसके बाद क्या था उन्हें खाना-पीना मुफ्त में मिलने लगा और रहने का बंदोबस्त भी हो गया। डर की वजह से कोई भी उनसे पैसे नहीं लेता था।

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अजीत ने 200 से ज्यादा फिल्मों में काम किया है। 'नास्तिक', 'मुगल ए आजम', 'नया दौर' और 'मिलन' जैसी फिल्मों को अजीत ने अपने किरदार से सजाया। 22 अक्टूबर 1998 में अजीत ने हैदराबाद में अंतिम सांस ली। बॉलीवुड में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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