इस जवान ने मार गिराए थे 300 चीनी सैनिक, शहीद होने के बाद भी कर रहा देश की रक्षा, मिलते हैं प्रमोशन

देहरादून. भारत और चीन के बीच पिछले 2 महीने से विवाद चल रहा है। 15 जून को दोनों देशों के बीच हुई हिंसक झड़प में भारतीय जवानों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि हमारी सेना किसी से कम नहीं है। भारत और चीन जब 1962 में जब आमने-सामने आए थे, तो हमारे जवानों से अपने प्राणों की बाजी लगाकर देश की रक्षा की थी। इस युद्ध में कुछ ऐसे भी सैनिक थे, जिनके सामने चीन ने घुटने टेक दिए थे, ऐसे ही एक जवान थे जसवंत सिंह रावत, जिन्होंने तीन दिन में अकेले चीन के 300 सैनिकों को ढेर कर दिया था। आईए जानते हैं जसवंत सिंह की बहादुरी के किस्से...
 

Asianet News Hindi | Published : Jul 4, 2020 4:12 AM IST / Updated: Jul 04 2020, 01:43 PM IST

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इस जवान ने मार गिराए थे 300 चीनी सैनिक, शहीद होने के बाद भी कर रहा देश की रक्षा, मिलते हैं प्रमोशन


जसवंत सिंह रावत का जन्म 19 अगस्त 1941 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल के एक गांव छोटे से गांव में हुआ था। जसवंत सिंह जब सेना में भर्ती होने के लिए गए तो उनकी उम्र सिर्फ 17 साल थी। इसलिए उन्होंने भर्ती करने से इनकार कर दिया गया। इसके बाद जब उनकी उम्र पूरी हुई, तब वे भर्ती हुए। जसवंत सिंह 1962 में चीन के साथ युद्ध में वीरगति को प्राप्त हो गए थे। 

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17 नवंबर 1962 को चीन ने अरुणाचल प्रदेश में कब्जा करने के लिए हमला किया था। उस वक्त अरुणाचल प्रदेश में भारतीय सेना तैनात नहीं थी। चीन इसका फायदा उठाना चाहता था। चीन ने अरुणाचल में भारी तबाही मचा रही थी। तभी गढ़वाल रायफल की बटालियन को यहां भेजा गया। इसमें जसवंत सिंह एक सिपाही थे। भारतीय सेना के पास चीन का जवाब देने के लिए पर्याप्त हथियार और गोलबारूद भी नहीं थे। सरकार ने सेना से अपनी टुकड़ी वापस बुलाने का आदेश दिया।

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लेकिन गढ़वाल बटालियन के तीन सैनिकों ने वापस लौटने से इनकार कर दिया। ये तीन जवान जसवंत सिंह, लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और रायफल मैन गोपाल सिंह गुसाईं थे। 

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जसवंत सिंह ने दोनों साथियों को वापस भेज दिया। वे खुद नूरानांग पोस्ट पर तैनात हो गए। उन्होंने अकेले ही चीन की सेना को रोकने का फैसला किया। जसवंत सिंह अकेले इस पोस्ट पर तीन दिन तक चीन की सेना का सामना करते रहे। उन्होंने 300 चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। चीनी सेना 3 दिन तक आगे नहीं बढ़ पाई। इतना ही नहीं जसवंत सिंह इस तरह से फायरिंग कर रहे थे कि चीनी सेना को अंदाजा नहीं हुआ कि वे कोई अकेला सैनिक है या पूरी बटालियन। 

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जसवंत सिंह जिस वक्त चीनी सेना से लड़ रहे थे उस वक्त उन तक खाने पीने का सामान स्थानीय दो बहनें शैला और नूरा कर रही थीं। लेकिन 3 दिन बाद नूरा को चीनी सैनिकों ने पकड़ लिया। वहीं, शैला पर ग्रेनेड फेंक दिया। दोनों बहनें भी शहीद हो गई। उनकी शहादत को याद रखने के लिए पोस्ट के पास भारत की दो पहाड़ियों को नूरा और शैला नाम दिया गया। 

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दोनों बहनों के शहीद होने के बाद जब जसवंत सिंह पर रसद और सामान की कमी होने लगी तो उन्होंने तीसरे दिन खुद को गोली से उड़ा लिया। लेकिन तब तक वे 300 सैनिकों को ढेर कर चुके थे। यहां जब चीनी सेना ने देखा कि अकेला एक सैनिक किस तरह उन पर भारी पड़ रहा था, वे आश्चर्य चकित रह गए। चीनी कमांडर जसवंत सिंह का सिर काट ले गए थे। लेकिन युद्धविराम के बाद जसवंत सिंह को चीनी सेना ने सम्मान दिया। ना सिर्फ उनका सिर वापस किया, बल्कि उनकी कांस से बनी मूर्ति भी भेंट की। 

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जसवंत सिंह जिस जगह शहीद हुए थे, वहीं उनके नाम पर एक मंदिर बनाया गया है। इस मंदिर में चीन द्वारा सौंपी मूर्ति रखी गई है। भारतीय सेना का जवान उन्हें शीश झुकाने के बाद ड्यूटी करता है। वहां, तैनात जवान बताते हैं कि आज भी कोई जवान अपनी ड्यूटी पर सो जाता है तो वे थप्पड़ मार कर जगाते हैं। इतना ही नहीं वे खुद वहां मुस्तैद रहते हैं। 

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भारत सरकार ने उस पोस्ट को जसवंत गढ़ नाम दिया है, जहां वे शहीद हुए थे। उनके सभी सामानों को स्मारक में रखा गया है। इतना ही नहीं उनके कपड़ों में आज भी प्रेस की जाती है। उनके बूटों में पोलिश होती है। उनके लिए खाने की थाली भी रखी जाती है।

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जसवंत सिंह भारतीय सेना के अकेले ऐसे जवान हैं, जिन्हें शहीद होने के बाद भी प्रमोशन दिया जाता है। अब वे राइफल मैन से कैप्टन की पोस्ट पर पहुंच गए हैं। उनके परिवार को सैलरी भी जी जाती है। 

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