वीडियो देखकर तैयार कराई नट-बोल्ट की मशीन, आज तीन देशों में फैला है बिजनेस, लेकिन चीन से तौबा

कहते हैं कि जहां चाह-वहां राह! यह जरूरी नहीं कि बिजनेस सिर्फ पढ़े-लिखे लोग ही खड़ा कर सकते हैं। बिजनेस के लिए माइंड होना चाहिए। जुनून होना चाहिए। यह कहानी ऐसे शख्स की है, जिसका आज तीन देशों में बिजनेस फैला हुआ है। यह हैं रोहतक के रहने वाले राज सिंह पटेल। इनकी फैक्ट्री में नट-बोल्ट बनते हैं। शुरुआत में इन्होंने काफी संघर्ष किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी। इनकी कहानी प्रेरणा देती है।

रोहतक, हरियाणा. बिना संघर्ष कोई बड़ी मंजिल हासिल नहीं होती। लेकिन कुछ भी असंभव भी नहीं होता। कहते हैं कि जहां चाह-वहां राह! यह जरूरी नहीं कि बिजनेस सिर्फ पढ़े-लिखे लोग ही खड़ा कर सकते हैं। बिजनेस के लिए माइंड होना चाहिए। जुनून होना चाहिए। यह कहानी ऐसे शख्स की है, जिसका आज तीन देशों में बिजनेस फैला हुआ है। यह हैं रोहतक के रहने वाले राज सिंह पटेल। इनकी फैक्ट्री में नट-बोल्ट बनते हैं। शुरुआत में इन्होंने काफी संघर्ष किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी। इनकी कहानी प्रेरणा देती है। लेकिन वे यह भी सलाह देते हैं कि सस्ती मशीनों के चक्कर में चीन के चक्कर में न पड़ें। उनकी मशीनें सबसे खराब होती हैं। राज कहते हैं कि छोटी और सस्ती मशीनों के जरिये गांवों में बिजनेस खड़ा किया जा सकता है।


घर से भागकर हरियाणा आए थे..
मूलत: यूपी के उन्नाव के रहने वाले राज बताते हैं कि जब वे 10वीं फेल हुए, तो पिता की मार से डरकर भागकर रोहतक आ गए थे। यहां कई दिनों तक भूखे रहना पड़ा। यहां एक नट-बोल्ट बनाने के कारखाने में काम किया। लेकिन लक्ष्य कुछ और था। लिहाजा 75 हजार रुपए का कर्ज खुद की मशीन खरीदी और काम शुरू किया। राज बताते हैं कि उनके पिता सुंदरलाल किसान हैं। वे 5 भाई और एक बहन हैं। पिता की आमदनी इतनी नहीं थी कि अच्छे से परिवार पाल सकें। बात 1986 की है, जब उनका 10वीं का रिजल्ट आया। फेल होने पर पिता की खूब डांट पड़ी। हफ्तेभर तक खाना-पीना दूभर हो गया। पिता ने आगे की पढ़ाई बंद करा दी और खेतों में काम पर लगा दिया। लेकिन जब मन नहीं लगा, तो घर से भाग आए।

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1995 में खुद की फैक्ट्री लगाने का आइडिया आया
राज बताते हैं कि 1988 में उन्हें एक फैक्ट्री में नौकरी मिली, लेकिन वो सिर्फ पेट भरने का जरिया थी। 1995 में वे जिस मशीन पर काम करते थे, उसे ही किराये पर लिया। उनकी पत्नी आशा पार्ट की पैकिंग में हेल्प करती थीं। राज बतात हैं कि 1999 में उन्होंने खुद की मशीन खरीदने की ठानी। वे सस्ती मशीनों की उम्मीद में ताइवान गए। वहां से मशीनों का वीडियो बनाकर लाए और यहां वैसे ही मशीनें बनवाईं। इसके बाद 2007 में अमेरिका से मशीनें लाएं। इसके बाद फिर ताइवान गए और 18 लाख की नई मशीनें खरीदीं। इस तरह उनका काम चल पड़ा।

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