झारखंड का इकलौता धर्मराज मंदिर, जहां 100 सालों से पुजारी नहीं कालिंदी समाज के लोग करते आ रहे हैं पूजा

झारखंड के बोकारो स्थित इकलौता धर्मराज मंदिर जहां पिछले 100 सालों से कोई पुजारी नहीं बल्कि कालिंदी समाज के लोग करते है पूजा। यह देश का अकेला ऐसा मंदिर है जहां हर रोज यमराज की पूजा होती है। सामुदायिक एकता की मिसाल है यह मंदिर।

बोकारो (झारखंड). झारखंड अपनी संस्कृति और परंपरा के लिए जाना जाता है। यहां की संस्कृति और परंपरा सबसे अलग है। झारखंड के बोकारो जिले के चंदनकियारी प्रखंड अंतर्गत महाल में झारखंड का इकलौता धर्मराज मंदिर है। यहां भगवान यमराज की पूजा की जाती है। चंदनकियारी के महाल गांव में अवस्थित इस मंदिर के पूजारी कोई ब्राह्मण नहीं है। 100 सालों से यहां कालिंदी समाज के लोग पूजा करते आ रहे हैं। कालिंदी समाज के लोगों को हमेंशा साफ-सफाई के काम करते देखा जाता है, लेकिन इसके विपरित बोकारों के इस मंदिर में इन्हीं के द्वारा पूजा करवाई जाती है। वे हीं यहां के पुजारी हैं। दूसरी जाति के लोग यहां यमराज के भक्त बन कर मंदिर में आते हैं। खासकर काशीपुर महाराज के वंशज कहे जाने वाले जो कि क्षत्रीय हैं वे भी पूजा के दौरान उपस्थित रहते हैं। सनातन धर्म में साल में एक ही दिन दिवाली के दिन यमराज की पूजा की पंरपरा रही है। लेकिन झारखंड के इकलाैते धर्मराज यमराज मंदिर में हर रोज पूजा होती है।

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महाल गांव सामुदायिक एकता और अनूठी परंपरा का मिशाल
बोकारों जिले में स्थित महाल गांव सामुदायिक एकता और अनूठी परंपरा का मिसाल कायम करता है। करीब 100 वर्षों से यहां के यमराज मंदिर में परंपराओं का निर्वहन किया जा रहा है। एक तो मिसाल यह कि यहां धर्मराज यमराज का मंदिर है। दूसरा मंदिर का पुजारी कोई कर्मकांडी नहीं बल्कि कालिंदी समाज के लोग होते हैं। 

साल में एक ही दिन यमराज की पूजा की पंरपरा
सनातन धर्म में साल में एक ही दिन यमराज की पूजा की पंरपरा रही है। दिवाली के एक दिन पहले छोटी दिवाली मनाई जाती है। इसे नरक चतुर्दशी या रूप चाैदस भी कहते हैं। पुराणों के अनुसार इस दिन यमराज की पूजा करने या दीपदान करने से अकाल मृत्यु का भय सदा के लिए समाप्त होता है। लेकिन झारखंड के इकलौते धर्मराज यमराज मंदिर में हर रोज यमराज की पूजा होती है।

बकरे और मुर्गे की बलि चढ़ाने की परंपरा
बोकारों के इस मंदिर में दूर-दूर से लोग अपनी-अपनी इच्छाओं को लेकर पूजा करने आते हैं। मनोकामना पूरा हो जाने के बाद श्रद्धालु बकरे और मुर्गें की बलि भी चढ़ाते हैं। बलि देने का काम मंदिर के किनारे आसपास के खेतों में होता है। कालिंदी समाज के पुजारी विधि-विधान से पूजा करवाते हैं। यहां पूजा करने के लिए आस-पास के गांव वालों की भीड़ जुटती है। 

यह है है मान्यता
इस मंदिर के संबंध में किदवंती है कि काशीपुर के महाराज के वंशज भगवान धर्मराज की पूजा किया करते थे। कालांतर में यहां के लोगों को आने-जाने में परेशानी होने लगी तो उन्हीं लोगों ने चंदनकियारी के महाल गांव में सैकड़ों वर्ष पूर्व भगवान धर्मराज के मूर्ति की स्थापना की। धीरे-धीरे वहीं मंदिर बन गया। प्रतिदिन पूजा-अर्चना के लिए कालिंदी परिवार के सदस्यों को जिम्मेदारी सौंपा गया, जो कि यहां के पुजारी हैं।

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