फिल्मों के आइटम सॉन्ग और अश्लील कंटेंट बच्चों पर बहुत बुरा असर डाल रहे हैं। मनोवैज्ञानिक आगाह करते हैं कि इससे बच्चों में गलत आदतें पनप सकती हैं और वे गलत रास्ते पर जा सकते हैं।
फिल्मों का प्रभाव आज के समाज पर बहुत ज़्यादा है... खासकर युवाओं और बच्चों पर। सेल फ़ोन के आने से फिल्मों का ये प्रभाव और भी बढ़ गया है। हालत ये है कि सही-गलत की समझ ना होने की उम्र में युवाओं के गलत रास्ते पर जाने में फिल्मों की भूमिका बहुत ज़्यादा होती है। यहाँ तक कि छोटे बच्चे भी फिल्मों में दिखाए जाने वाले अश्लील दृश्यों, आइटम सॉन्ग और सेक्सुअल सीन्स से बहुत प्रभावित हो रहे हैं... मनोवैज्ञानिक इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि बच्चे इनके बारे में कुछ समझे बिना ही इनका अनुकरण कर रहे हैं। इसलिए वे बच्चों की परवरिश में माता-पिता को सावधानी बरतने की सलाह दे रहे हैं।
आजकल के बच्चे अपनी उम्र से बड़े काम करते हैं तो बड़े खुश होते हैं। ख़ास तौर पर, बच्चे जब फ़िल्मी गाने गाते हैं या डांस करते हैं तो माता-पिता बहुत खुश होते हैं। इतना ही नहीं, उन्हें लगता है कि ये उनके बच्चों के लिए बहुत फ़ायदेमंद है... लेकिन मनोवैज्ञानिक बताते हैं कि ये सच नहीं है।
चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट आगाह करते हैं कि फिल्मों के आइटम सॉन्ग और अश्लील एल्बम सॉन्ग बच्चों पर बुरा असर डालते हैं। घरों और पार्टियों में बजने वाला संगीत बच्चों को बहुत आकर्षित करता है... इसलिए वे उसका अनुकरण करते हैं। वे आगाह करते हैं कि हो सकता है कि बच्चे उन गानों के बोल समझ ना पाएँ, लेकिन वे उनमें शामिल अश्लील शब्दों को याद कर लें या फिर उसी तरह अश्लील डांस करने लगें।
मुंबई के एक चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट और पेरेंटिंग काउंसलर ने बताया, “एक बार मैं एक डांस रियलिटी शो के ऑडिशन में गया था। उस दौरान मैंने देखा कि एक सात साल की बच्ची बहुत ही अजीब व्यवहार कर रही थी। मैंने देखा कि उस बच्ची ने कागज़ के दो गोले बनाकर अपनी ड्रेस में रख लिए थे। इतनी कम उम्र में उस बच्ची को ऐसा करते देखकर... मैं हैरान रह गया।”
कुछ फ़िल्मी गाने और संगीत सुनने में अच्छे लग सकते हैं... लेकिन उनके बोल बहुत ही भद्दे होते हैं। इतना ही नहीं, हो सकता है कि बच्चों को हद से ज़्यादा हिंसा, ड्रग्स, सेक्स और अश्लील दृश्य समझ ना आएँ। लेकिन वे इनके बारे में जानने के लिए उत्सुक रहते हैं। वे अपने माता-पिता से उस गाने के बोलों का मतलब या फिर उस सीन में ऐसा क्यों किया गया, ये पूछते हैं।
हालांकि, बच्चे जब इस तरह के सवाल पूछते हैं तो माता-पिता को ये बातें शर्मनाक लगती हैं और वे सही जवाब देने के बजाय बात टाल देते हैं। इससे उन बातों को जानने की बच्चों की उत्सुकता और बढ़ जाती है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट आगाह करते हैं कि इससे इस बात का खतरा रहता है कि बच्चे अपने दोस्तों या फिर जान-पहचान वालों से इनके बारे में पूछताछ कर सकते हैं। इससे बहुत नुकसान हो सकता है।
माता-पिता चाहते हैं कि उनके बच्चे आज के दौर की प्रतियोगिता से भरी दुनिया के हिसाब से खुद को ढाल लें, ये स्वाभाविक है। लेकिन इसके लिए अगर बच्चे फिल्मों के आइटम सॉन्ग की नक़ल करते हुए डांस करते हैं तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती। लेकिन इससे बच्चों की मानसिक स्थिति बदल सकती है... उनके मन में ये भावना घर कर सकती है कि ऐसा करना गलत नहीं है। ये उनकी आदत बन जाती है और वे आगे भी ऐसा ही करते हैं... लेकिन तब माता-पिता को उनका ये व्यवहार गलत लगता है। इसलिए चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट कहते हैं कि अगर बचपन में ही बच्चों को ऐसा करने से रोका जाए तो आगे चलकर माता-पिता को दुखी नहीं होना पड़ेगा।
विशेषज्ञ माता-पिता को सलाह देते हैं कि वे बच्चों के बढ़ने के इस दौर को हल्के में ना लें। इसी दौरान बच्चों की रचनात्मकता और क्षमताएँ सामने आती हैं। इस दौरान उन्हें सही मार्गदर्शन की ज़रूरत होती है। माता-पिता को ही उन्हें बताना होता है कि उनके लिए कौन सा रास्ता सही है।
आज के इस ऑनलाइन ज़माने में बच्चों पर माता-पिता की नज़र होना बहुत ज़रूरी है। उन्हें इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे फ़ोन और टीवी पर किस तरह का कंटेंट देख रहे हैं। अगर बच्चे किसी गलत कंटेंट में दिलचस्पी दिखा रहे हैं तो उन्हें समझाना चाहिए। उन्हें अच्छे और बुरे में फर्क समझाना चाहिए। इससे बच्चे दोबारा कभी भी बुरी चीजों की तरफ़ आकर्षित नहीं होंगे।
बच्चों को मोबाइल की लत ना लगे, इसकी ज़िम्मेदारी भी माता-पिता की ही है। बहुत से माता-पिता अपने बच्चों को इसलिए सेल फ़ोन दे देते हैं ताकि वे उन्हें परेशान ना करें। लेकिन विशेषज्ञ आगाह करते हैं कि आगे चलकर इसका बच्चों पर बहुत बुरा असर पड़ता है। इसलिए चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट सलाह देते हैं कि माता-पिता को अपने बच्चों के साथ समय बिताना चाहिए... उनके साथ खेलना चाहिए, उन्हें पढ़ाना चाहिए, इससे बच्चे सेल फ़ोन की लत से बच सकते हैं।