हर दोस्त आपका दोस्त नहीं होता, गीता सिखाती है कब रिश्ता छोड़ देना चाहिए

Published : May 25, 2025, 06:42 AM IST
Gita on Friendships

सार

Gita on Friendships: श्रीमद्भगवद् गीता, भले ही आधुनिक दोस्ती की बात न करे, लेकिन यह हमें इमोशनल धर्म का गहरा पाठ पढ़ाती है, भ्रम के बिना डिसिजन लेना और सत्य पर डटे रहना। गीता में बताया गया है कि कब दोस्ती को तोड़ देना चाहिए बिना लड़े। 

Gita on Friendships: कुछ दोस्ती चुपचाप खत्म हो जाती है। न लड़ाई, न झगड़ा, लेकिन एक अजीब सी बेचानी दिल में घर कर जाती है। भीतर से आवाज आती है कि भले ही कोई गलत बात नहीं हुई, लेकिन अब ये रिश्ता सुरक्षित नहीं हैं। यह किसी पर दोष देने की बात नहीं, बल्कि आत्मिक सच को पहचानने की बात है। गीता से मिलीं कुछ बातें बताती है कि कब और कैसे किसी दोस्ती को सम्मानपूर्वक छोड़ा जा सकता है बिना क्रोध के, सिर्फ आत्म-सत्य के साथ।

बुद्धि का प्रयोग करें

बुद्धि (बुद्धि योग) ही है जो हमें भावनात्मक भ्रम से ऊपर उठने की शक्ति देती है। जब कोई दोस्ती विषाक्त या असुरक्षित लगने लगे, तब हम अक्सर पुराने पलों, यादों, या टकराव के डर से उसे झेलते रहते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं , “मन चंचल है, पर बुद्धि स्थिर है।” अगर रिश्ता आपकी ऊर्जा को खा रहा है, आत्म-सम्मान को कमजोर कर रहा है, तो बुद्धि कहती है, "अब रास्ता बदलना चाहिए।" यह स्वार्थ नहीं है यह आत्मबुद्धि है।

अलगाव बेरुखी नहीं बल्कि आत्मा की स्पष्टता है

गीता के निष्काम कर्म सिद्धांत के अनुसार, परिणामों की चिंता किए बिना कर्म करना ही सच्चा धर्म है। जब आप किसी दोस्ती से निकलते हैं, तो डर होता है कि सामने वाला क्या सोचेगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं , “जो फल की इच्छा से रहित है, वही मुक्त है।” रिश्ते को छोड़ना कठोरता नहीं है यह समझ है कि अब साथ रहना दोनों के लिए उचित नहीं। प्रेम कभी-कभी छोड़ने में भी होता है।

भावनात्मक धर्म निभाएं — चाहे वह कठिन क्यों न हो

अर्जुन को धर्म युद्ध करना पड़ा, चाहे वह उनके अपने थे। वैसे ही हमें भी कभी-कभी उन लोगों से दूर जाना होता है जो अब हमारी सीमाओं का सम्मान नहीं करते। भावनात्मक धर्म का अर्थ है, सच्चाई के साथ खड़ा होना, दूसरों को खुश करने के लिए खुद को खोना नहीं। कृष्ण कहते हैं,“स्वधर्म में विफल होना परधर्म में सफलता से बेहतर है।”इसलिए, जब आत्मा कहे — “बस”, तो उसे सुनिए।

मन की समता साधें — विदाई में न हो नाटक

गीता हमें समानता अभ्यास सिखाती है। ख-दुख, लाभ-हानि में संतुलन बनाए रखना। जब कोई रिश्ता छोड़ना हो, तो उसे किसी नाटकीय विदाई की ज़रूरत नहीं। न कोई अपराधी है, न शिकार। शांति से जाना यही आत्मबल है। कृष्ण कहते हैं, सुख और दुख में एक सा रहे,वही अमरत्व का अधिकारी है। विदाई को पतझड़ की पत्ती की तरह होने दें बिना शोर, बिना शिकायत।

विश्वास के साथ छोड़ें — हर चीज़ को नियंत्रित करना ज़रूरी नहीं

अर्जुन को कृष्ण ने सिखाया कि समर्पण यानी खुद पर नहीं, ब्रह्म ज्ञान पर भरोसा रखना। जब हम कोई रिश्ता छोड़ते हैं, तो हमारे भीतर सवाल उठते हैं ,“क्या मैं गलत कर रहा हूँ?” लेकिन गीता सिखाती है , "तुम किसी को छोड़ नहीं रहे, तुम सिर्फ अपने सत्य से जुड़ रहे हो।" ज़रूरी नहीं कि हर बात की सफाई दी जाए। आत्मा जानती है कब रुकना है और कब चल देना है।

अपनी शांति की रक्षा करना आध्यात्मिकता है, स्वार्थ नहीं

हम ‘अच्छे’ बनने के चक्कर में ‘सच्चे’ रहना भूल जाते हैं। गीता हमें अहिंसा का पाठ पढ़ाती है , लेकिन उसमें स्वयं के प्रति भी हिंसा करना गलत है। अगर कोई रिश्ता आपको अंदर से तोड़ रहा है, आत्मा की रोशनी बुझा रहा है ,तो वहां रुकना खुद से ग़द्दारी है। कृष्ण कहते हैं, “स्वयं से स्वयं को ऊपर उठाओ, स्वयं को गिरने मत दो।”

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