आदिवासी शब्द दो शब्दों 'आदि' और 'वासी' से मिल कर बना है और इसका अर्थ मूल निवासी होता है। पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को अत्विका नाम से संबोधित किया गया है। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए 'अनुसूचित जनजाति' पद का उपयोग किया गया है।
भोपाल : 15 नवंबर को बिरसा मुंडा की जयंती 'जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में मनाई जाएगी। मध्यप्रदेश (madhya pradesh) में इसको लेकर खास तैयारियां की जा रही हैं। इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (narendra modi) जनजातीय गौरव दिवस का शुभारंभ करेंगे। राजधानी भोपाल (bhopal) के जंबूरी मैदान में महासम्मेलन का आयोजन किया गया है। इसमें करीब 2 लाख आदिवासियों के आने की उम्मीद है। आदिवासी को जनजाति भी कहते हैं। आदिवासी मतलब जो प्रारंभ से ही यहां रहता आया है। ऐसे वक्त जब पूरा देश जनजातीय गौरव दिवस की तैयारियों में जुटा है तो आइए आपको बताते हैं आदिवासियों से जुड़ी कुछ ऐसी बातें जो शायद ही आप जानते होंगे।
आदिवासी का अर्थ
आदिवासी शब्द दो शब्दों 'आदि' और 'वासी' से मिल कर बना है और इसका अर्थ मूल निवासी होता है। पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को अत्विका नाम से संबोधित किया गया है। महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन यानी पहाड़ पर रहने वाले लोग से संबोधित किया। भारतीय संविधान में आदिवासियों के लिए 'अनुसूचित जनजाति' पद का उपयोग किया गया है।
प्रकृति की करते हैं पूजा
आदिवासी प्रकृति पूजक होते है। वे प्रकृति में पाए जाने वाले सभी जीव, जंतु, पर्वत, नदियां, नाले, खेत इन सभी की पूजा करते है। उनका मानना होता है कि प्रकृति की हर एक वस्तु में जीवन होता है। आदिवासी शैव धर्म से भी संबंधित हैं। वे भगवान शिव की मूर्ति नहीं शिवलिंग की पूजा करते हैं। उनके धर्म के देवता शिव के अलावा भैरव, कालिका, दस महाविद्याएं और लोक देवता, कुल देवता, ग्राम देवता भी हैं।
देश का एक बड़ा हिस्सा जनजातियों का
भारत में लगभग 700 आदिवासी समूह और उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन आदिवासी जातियां हैं। देश की जनसंख्या का 8.6% यानी कि लगभग 10 करोड़ जितना बड़ा एक हिस्सा आदिवासियों का है भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में जाट, गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, बोडो, भील, खासी, सहरिया, संथाल, मीणा, उरांव, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध,टोकरे कोली, महादेव कोली,मल्हार कोली, टाकणकार शामिल हैं।
झंडा होता है प्रतीक
आदिवासी समाज के लोग अपने धार्मिक स्थलों, खेतों, घरों आदि जगहों पर एक विशिष्ट प्रकार का झंडा लगाते है, जो अन्य धमों के झंडों से अलग होता है। आदिवासी झंडे में सूरज, चांद, तारे इस तरह के प्रतीक होते हैं और ये झंडे सभी रंग के हो सकते है। वो किसी रंग विशेष से बंधे हुए नहीं होते।
पारंपरिक कपड़े पहनते हैं आदिवासी
आज भी आदिवासी समाज के कई लोग अपने सांस्कृतिक कपडे़ पहनते हैं। विशेष मौकों पर भी लोग अपना पारंपरिक पहनावा ही पहनते हैं। जिसमें धोती, आधी बांह की कमीज, सिर पर गोफन के साथ पगड़ी जिसे फलिया भी कहते हैं। कुछ लोग तो 3 से 4 किलोग्राम चांदी का बेल्ट कमर पर बांधते हैं। यह बेल्ट बस वही लोग पहनते हैं जो इसको खरीद सकते हैं। कुछ लोग तो अपने चेहरे पर अलग-अलग तरह की चित्रकारी भी करते हैं।
जनजातियों की शादी की रस्में
आदिवासी समुदायों में होने वाली शादियां भी कई रस्में निभाई जाती हैं। गुजरात और राजस्थान की भील जनजाति में उल्टे फेरे लगाए जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि धरती भी उल्टी ही घूमती है। दरअसल आदिवासी अपनी जिंदगी को प्रकृति के अनुसार ही जीते हैं। इसी कारण लोग अपने घरों में भी उल्टी चलने वाली घड़ी रखते हैं। इस जनजाति में एक और अलग रस्म होती है। यहां शादी के वक्त जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं, तो वह लोग लड़की की चाल पर ध्यान देते हैं। अगर लड़की के पैर चलते हुए अंदर की ओर जाते है, तो लड़की को घर के लिए शुभ माना जाता है लेकिन अगर उसके पैर चलते हुए बाहर की तरफ आते हैं तो माना जाता है कि वह घर के लिए ठीक नहीं है। लड़के के घर वाले लड़की की बोल-चाल पर भी बहुत ध्यान देते हैं।
शादी में ये भी परंपरा
भील जनजाति के लोग दूसरी जनजाति, जाति, धर्म में शादी कर सकते हैं लेकिन अपने ही गोत्र में शादी करना सख्त मना है। ऐसा करने पर जनजाति से बाहर निकाल दिया जाता है। यह लोग आज भी शादी सांस्कृतिक तरीके से ही करते हैं। बाकी लोगों को शादी की सूचना देने का तरीका भी इस जनजाति का बहुत ही अलग है। यहां लोग अपने घर के मुख्य दरवाज़े के बाहर चावल और गेंहू के कुछ दाने रख देते हैं। जिसे देखकर लोग समझ जाते हैं कि इस घर में किसी का रिश्ता तय हो गया है। भील जनजाति में शादी 3 से 4 दिनों में पूरी हो जाती है। इस जनजाति में और भी कई अनोखी रस्में हैं। उनमें से एक चांदला है। इस रस्म में जनजाति के लोग लड़के और लड़की के घर वालों को कुछ पैसे देकर उनकी आर्थिक मदद करते हैं। लड़की और लड़के के घर वाले एक कॉपी में यह लिखते हैं कि किसने कितनी मदद की। ताकि जब उनके घर कोई शादी हो तो वह भी उनकी मदद कर सकें। इसी तरह यहां दहेज नहीं होता, बल्कि दोनों परिवार मिलकर सभी तैयारियां करते हैं।
आदिवासी परंपरा और ज्ञान
आदिवासियों के पास डिजास्टर, डिफेंस और डेवलपमेंट का अद्भुत ज्ञान है। ऐतिहासिक पुस्तकों और ग्रंथों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि कैसे मुगल या अंग्रेजों ने पूरे भारत पर राज किया लेकिन वे आदिवासी क्षेत्रों में प्रवेश तक नहीं कर पाए। इसी प्रकार अंडमान के जरवा आदिवासी के द्वारा सुनामी जैसी आपदा में भी खुद को बचा लेने और इसका अंदेशा लगा लेने कि कोई भयानक प्रकृतिक आपदा आने वाली है ने इस विषय क्षेत्र के लोगों को यह विश्वास दिलाया कि आदिवासियों के पास डिजास्टर की अद्भुत समझ है। इसी प्रकार आदिवासी समाज में एक मदद की परंपरा है जिसे हलमा कहते हैं। इसके तहत जब कोई व्यक्ति या परिवार अपने प्रयासों के बाद भी खुद पर आए संकट से बाहर नहीं निकल पाता तो उसकी मदद के लिए सभी ग्रामीण जुटते हैं और निस्वार्थ होकर उसे उस मुश्किल से बाहर निकालते हैं।
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