असम चीख रहा है, मैं डूब रहा हूं...पर क्या देश इनका रोना सुन पा रहा है

असम से आने वाली बाढ़ की भयावह तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वो प्रभाव नहीं डाल पा रही हैं। इस जल प्रलय के कहर से प्रभावित लाखों विस्थापितों के लिए यहां अब भी कोई ऐसे मैसेज नहीं लिखे जा रहे है, जिन्हें पढ़कर दिल पसीज जाए।

(By Sunita Iyer)

गुवाहाटी। 26 जुलाई, 2005 को जब सपनों के शहर मुंबई में तेज हवाओं और बारिश ने कहर बरपाया, तो मानसून को लेकर मेरी खूबसूरत यादें भी उसके साथ हमेशा के लिए बह गईं। इस घटना को 15 साल बीत चुके हैं लेकिन वो खतरनाक वाकया मुझे लगातार डराता रहता है। मुझे याद है कि तब मेरे संपादक ने एक उभरते हुए पत्रकार के तौर पर मुझे ज्यादा से ज्यादा स्टोरीज करने के लिए कहा। चूंकि उस वक्त मैं एक शौकिया पत्रकार था तो मेरे पास कोई क्लू नहीं था कि किस तरह की स्टोरी करूं। हालांकि मुझे महसूस हुआ कि मुंबई जलप्रलय से बड़ी कोई स्टोरी नहीं है। 

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उस वक्त भारत के हर मीडिया हाउस में न्यूज रिपोर्ट्स, ओपिनियन, इंटरव्यूज और ह्ययूमन इंटरेस्ट से जुड़ी खबरों की भरमार थी। फ्रंट पेज से लेकर सेंटर स्प्रेड तक मुंबई बाढ़ से जुड़ी खबरों को बेहद बारीकी से कवर किया गया। उस दौर में सोशल मीडिया एक सपने की तरह था। फेसबुक महज एक साल पुराना था, जबकि ट्विटर मौजूद नहीं था। इंस्टाग्राम का तो शायद ख्याल भी नहीं आया होगा। अब स्टोरी के लिए मैं एक तरफ तो इधर-उधर बिखरे सोर्सेज के लिए दौड़भाग करने लगा, तो वहीं दूसरी तरफ मेरा मन यह भी कहता था कि मुझे रिपोर्टिंग करनी चाहिए या फिर उन लोगों की मदद, जो बाढ़ में अपना सबकुछ गंवा चुके हैं। कौन है, जो मुंबईकर की बात सुनेगा? कौन है, जो उनकी मदद को आगे आएगा? सरकार उनकी किस तरह से मदद करेगी? ऐसे बहुत सारे सवाल थे, पर उनका जवाब कोई नहीं। 

कुछ साल बाद 16 जून, 2013 को उत्तराखंड में बारिश और बाढ़ की वजह से 5700 लोगों की मौत हुई। मुझे याद है ऋषिकेश में बीच गंगा में स्थापित भगवान शिव की मूर्ति भी क्षतिग्रस्त हो गई और ये खबर अखबारों और न्यूज चैनलों पर छाई हुई थी। फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी बाढ़ पीड़ितों की मदद करने वालों के साथ थे। तब लोग आगे आकर राहत और बचाव कार्यों के साथ ही दान के लिए भी अपील कर रहे थे। इन सबका एक क्लियर मैसेज था कि देश चिंतित है और उसे लोगों की परवाह है। 

कुछ ऐसा ही सेंटीमेंट उस वक्त भी देखने को मिला, जब 2015 में चेन्नई शहर और पिछले साल केरल को बाढ़ का भीषण प्रकोप झेलना पड़ा। पारंपरिक मीडिया ने तब भी कुछ डरावनी कहानियों और उम्मीद की किरणों के बीच अपने पेजों को रंगना जारी रखा। वहीं, सोशल मीडिया जीवित था और बाढ़ पीड़ितों के लिए चिंतित भी। हेल्पलाइन नंबर्स, बाढ़ में फंसे परिजनों के लिए चिंता, दान की अपील करने वाले सेलेब्रिटी, हवाई सर्वेक्षण करने वाले लीडर्स और ग्रांउड जीरो पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव नजर आ रहे थे। मैसेज फिर से क्लियर था कि देश चिंतित है और उसे लोगों की परवाह है। 

आखिर नार्थ-ईस्ट को पराया क्यों कर दिया?
जुलाई, 2019 में असम और बिहार दोनों ही राज्य भीषण बाढ़ के कहर से जूझ रहे हैं। हालांकि बिहार की बाढ़ और भयावहता पर तो पारंपरिक और डिजिटल मीडिया में चर्चा हो रही है, लेकिन असम को पूरी तरह से उपेक्षित कर दिया गया है। यहां बाढ़ से अब तक 60 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 19 जिलों के 30 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हैं। राज्य की सभी प्रमुख नदियां ब्रह्मपुत्र, जिया भारली, पुथिमारी, बेकी, गौरांग और कुशियारा खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं। क्या ये बात सत्ता में बैठे लोगों को जागने के लिए पर्याप्त नहीं है? असम में बाढ़ से 2523 गांव प्रभावित हुए हैं। यहां 4209 घर और 1,36,837.55 हेक्टेयर पर लगी फसल पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है। क्या ये चीजें मीडिया को आक्रामक रूप से रिपोर्टिंग करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। 1 लाख 3 हजार 934 लोग 659 राहत शिविरों में शरण लेने को मजबूर हैं। क्या ये बात हमें इनकी और ज्यादा मदद करने के लिए नहीं कहती? बाढ़ नियंत्रण योजनाओं के लिए इस साल राज्य के बजट में 672 करोड़ रुपए आवंटित किए गए। क्या ये पर्याप्त नहीं है कि बाढ़ जैसी आपदा से निपटने के लिए राज्य सरकार को लॉन्गटर्म स्ट्रैटेजी बनाने की जरूरत है? 

(Source: Flood Report as on July 23, 2019, released by Assam State Disaster Management Authority)

सोशल मीडिया का दिल भी नहीं पसीज रहा...
असम से आने वाली भयावह तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वो प्रभाव नहीं डाल पा रही हैं। यही वजह है की बाढ़ से प्रभावित लाखों विस्थापितों के लिए यहां अब भी कोई ऐसे मैसेज नहीं लिखे जा रहे है, जिन्हें पढ़कर दिल पसीज जाए। यहां न तो कोई एनजीओ आगे आकर मदद करता दिख रहा है और न ही किसी टीवी चैनल पर कोई विज्ञापन नजर आ रहा, जो कि मुख्यमंत्री आपदा राहत कोष में पीड़ितों की मदद के लिए फंड इकट्ठा करने की बात करे। हालांकि असम की विवादास्पद ब्रांड एम्बेसडर प्रियंका चोपड़ा ने इस आपदा पर अपनी भावना शून्य प्रतिक्रिया जरूर जाहिर की है। शाबाश भारत! ये वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि ज्यादातर भारतीयों और मीडिया के लिए हमारा देश पश्चिम बंगाल पर ही समाप्त हो जाता है। इससे आगे कुछ भी हो, अक्सर उसे अंदर के पेजों पर ही जगह मिलती है, जब तक कि वो सुविधाजनक न हो। 

मुंबई में बारिश का फुल कवरेज पर असम की परवाह नहीं...
2016 में भी असम ने भीषण बाढ़ का सामना किया था। उस दौरान असम की एक लड़की बंदिता बर्मन की फोटो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुई थी। यह फोटो फेसबुक टाइमलाइन पर बाढ़ के कुछ महीनों पहले पोस्ट की गई थी। हालांकि फोटो के साथ लिखे गए मैसेज ने कई लोगों को झकझोर दिया। बंदिता ने प्लेकार्ड पर लिखा- 
मुंबई : बारिश, फुल मीडिया कवरेज
असम : हर साल बाढ़, सैकड़ों लोगों की मौत, किसी को परवाह नहीं
और हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां हमारे पास 24 घंटे और सातों दिन चलने वाले कम से कम 30 चैनल हैं, जो कुंडली तो दिखा सकते हैं लेकिन असम की भयावहता नहीं। 

3 साल बाद भी नहीं बदले हालात...
3 साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। दुर्भाग्य से असम की बाढ़ आज भी मेनस्ट्रीम मीडिया और राजनीतिक गलियारों में चर्चा का विषय नहीं है। ये चुप्पी इस बात का समर्थन करती है कि पारंपरिक और डिजिटल मीडिया के अलावा पॉलिटिकल लोगों के लिए भी नार्थ-ईस्ट (पूर्वोत्तर) की आपदा ध्यान देने लायक नहीं है। क्या भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को लेकर सरकारों और मीडिया के रवैये में कभी बदलाव आएगा या फिर इन्हें अपनी भौगोलिक स्थिति का खामियाजा हमेशा भुगतना पड़ेगा?

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