अयोध्या मामले में 60 साल से पक्षकार है सुन्नी वक्फ बोर्ड, मिली 5 एकड़ जमीन लेकिन...

अयोध्या के राममंदिर और बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की विशेष बेंच ने अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि के 3 पक्षकारों में सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ वैकल्पिक जमीन देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया। हालांकि सुन्नी वक्फ बोर्ड का कहना है कि वो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटीशन दायर करेंगे। 

Asianet News Hindi | Published : Nov 9, 2019 6:29 AM IST / Updated: Nov 09 2019, 12:04 PM IST

नई दिल्ली। अयोध्या के राममंदिर और बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने शनिवार को फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की विशेष बेंच ने अयोध्या में 2.77 एकड़ विवादित भूमि के 3 पक्षकारों में सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ वैकल्पिक जमीन देने का ऐतिहासिक फैसला सुनाया। बता दें कि 134 साल पुराने अयोध्या विवाद मामले में सुन्नी वक्फ बोर्ड 60 साल से दावेदार है। 

क्या था विवाद : 
दरअसल अयोध्या में 2.77 एकड़ ज़मीन को लेकर विवाद था। ये विवाद वैसे पुराना है, लेकिन इसमें कोर्ट का दखल 1885 से शुरू हुआ। निर्मोही अखाड़ा के महंत रघुबर दास ने फैजाबाद सिविल कोर्ट में मुकदमा दायर किया था। राम चबूतरा क्षेत्र में मंदिर बनाने की मांग की। कोर्ट ने फैसला सुनाया। अदालत का मत था कि मंदिर बनाने की अनुमति देने से दो समुदायों के बीच नफरत की नींव पड़ सकती है, इसलिए स्थानीय अदालत ने मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी। इसके बाद दिसंबर, 1949 को मस्जिद में राम की मूर्ति रख दी गई, जिसे बाद में रामलला कहा जाने लगा। 

1950 से शुरु हुई अदालती लड़ाई : 
1950 से इस जमीन के लिए अदालती लड़ाई का दौर शुरू हुआ। विवादित जमीन के सारे दावेदार 1950 के बाद के हैं। साल 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अयोध्या मसले पर याचिका दायर की। याचिका में उन्होंने विवादित स्थल पर हिंदू रीति-रिवाज से पूजा-पाठ की इजाजत देने की मांग की। इसके बाद 1959 में निर्मोही अखाड़ा ने विवादित भूमि पर नियंत्रण की मांग शुरू कर दी। 

मामले में कैसे पक्षकार बना सुन्नी वक्फ बोर्ड : 
हालांकि विवादित स्थान पर निर्मोही अखाड़े से जुड़े संतों ने सबसे पहले 1885 में ही फैजाबाद सिविल कोर्ट में याचिका दायर कर पूजा करने की इजाजत मांगी थी। निर्मोही अखाड़ा की तर्ज पर मुस्लिम सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने भी 1961 में विवादित भूमि पर कोर्ट में अपना दावा ठोक दिया और विवादित जगह के पजेशन और मूर्तियां हटाने की मांग की। इस तरह रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर मालिकाना हक का विवाद शुरू हो गया। 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीन पक्षों में बराबर बांटी थी जमीन : 
इसी विवाद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को फैसला दिया था। कोर्ट ने 2.77 एकड़ ज़मीन को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान को बराबर-बराबर बांटने का आदेश दिया था। फैसले में कहा गया था कि जिस जगह रामलला की मूर्ति है उसे रामलला विराजमान को दिया जाए। सीता रसोई और राम चबूतरा निर्मोही अखाड़े को दिए जाएं। बचे हुए हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया जाए। हालांकि यह फैसला किसी को मंजूर नहीं हुआ और तीनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट चले गए।
 

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