MSP, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर भारत में विवाद, जानिए, सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले देशों क्या है व्यवस्था

भारत में कृषि क्षेत्र में सुधारों को लिए केंद्र की मोदी सरकार ने जून में 3 कृषि कानूनों को पास किया था। सरकार का कहना है कि इन कानूनों से किसान अपनी फसलों को कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। इससे किसानों के लाभ में इजाफा होगा। वहीं, इसके उलट पंजाब और हरियाणा के किसान इन कानूनों के विरोध में राजधानी और उसके आसपास डटे हुए हैं।

Asianet News Hindi | Published : Dec 15, 2020 8:00 AM IST / Updated: Dec 15 2020, 06:21 PM IST

नई दिल्ली. भारत में कृषि क्षेत्र में सुधारों को लिए केंद्र की मोदी सरकार ने जून में 3 कृषि कानूनों को पास किया था। सरकार का कहना है कि इन कानूनों से किसान अपनी फसलों को कहीं भी बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। इससे किसानों के लाभ में इजाफा होगा। वहीं, इसके उलट पंजाब और हरियाणा के किसान इन कानूनों के विरोध में राजधानी और उसके आसपास डटे हुए हैं। सरकार कानूनों में संसोधन के लिए भी तैयार है। इन विरोध प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा चर्चा एमएसपी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और एपीएमसी मंडियोंं की है। ऐसे में हमें दुनिया के सबसे ज्यादा उत्पादन वाले देशों की व्यवस्थाओं को देखना चाहिए। भारत उत्पादन के मामले में अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है। भारत और अमेरिका के बाद उत्पादन में चीन और ब्राजील का नंबर आता है। आइए देखते हैं तीनों देशों में किस तरह की कृषि व्यवस्था है। अमेरिका से लेकर चीन और ब्राजील में एमएसपी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग और मंडियों को लेकर क्या व्यवस्था है?

अमेरिका: अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश है। अमेरिका भौगोलिक तौर पर काफी बड़ा देश है। अमेरिका में कैलिफोर्निया, लोवा, टैक्सास, नब्रास्का और इलिनोस सबसे ज्यादा कृषि उपज वाले राज्य हैं। दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका का खाद्य उत्पादन दोगुना हुआ है। अमेरिका में सिर्फ 1.3% लोग ही रोजगार के लिए खेती पर निर्भर हैं। अमेरिका के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, देश की जीडीपी में कृषि का योगदान सिर्फ 1% ही है। अमेरिका मक्का का सबसे बड़ा उत्पादक है। गेहूं के उत्पादन के मामले में तीसरा स्थान है। 

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अमेरिका में कैसी है खेती व्यवस्था ?
अमेरिका का कृषि क्षेत्र अत्याधुनिक मशीनों से लैस है। यहां कम श्रमशक्ति होने के बावजूद देश दुनिया का सबसे बड़ा कृषि उत्पादक है। अमेरिका में उगाई से लेकर सिचाई और फसलों की कटाई तक किसान मशीनों पर निर्भर है। इससे ना सिर्फ समय की भी बचत होती है, बल्कि खर्च भी कम आता है। अमेरिका में लंबे वक्त से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग हो रही है। इसके अलावा अमेरिका में मंडी व्यवस्था भी है। यहां किसान पहले से ही स्वतंत्र हैं कि वे अपनी फसल कहीं भी बेच सकते हैं। यहां वालमार्ट और सुपरवैल्यु जैसे सुपरमार्केट सीधे किसानों से उनकी फसल खरीदते हैं। इसके अलावा यहां युवा किसान खाद्य केन्द्रों का निर्माण कर रहे हैं, ताकि वे अपनी फसल को स्टोर कर सकें, बाजार तक ले जाने और सुपर मार्केट में बेचने में मदद मिल सके। अमेरिका में पिछले कुछ समय से युवाओं का ध्यान खेती की तरफ तेजी से बढ़ा है। 

अमेरिका भारत की एमएसपी व्यवस्था का विरोध करता है। अमेरिका ने हाल ही में भारत पर आरोप लगाया था कि वह जरूरत से ज्यादा खाद्य सब्सिडी दे रहा है, जिससे विश्व व्यापार नीति बर्बाद हो जाएगी। 

चीन : वैसे देखा जाए तो चीन दुनिया में सबसे ज्यादा अनाज, सब्जियां और फल पैदा करता है। लेकिन चीन की पैदावार की खपत सबसे ज्यादा है। इसलिए चीन बड़ा आयातक भी है। चीन में नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स के 2013 के आंकड़ों के मुताबिक, देश की कुल जीडीपी में 10 फीसदी हिस्सा कृषि का है। चीन में खेतों की जुड़े मजदूरों की संख्या 31 करोड़ के आसपास है। 

चीन में कैसी है खेती व्यवस्था ?
चीन में तकनीकी आधारित खेती पर जोर दिया जा रहा है। यहां बुबाई से लेकर कटाई तक लोग मशीनों पर निर्भर हैं। चीन में अब ऑटोमेटेड खेती पर भी विचार किया जा रहा है। यानी बिना इंसानों के मशीन बुबाई करेगी और फसलों की कटाई करेगी। चीन में उर्वरकों का भी काफी इस्तेमाल होता है। चीन में कृषि संबंधित बड़े सुधारों को करके गरीबी दूर करने का काम किया गया है। चीन और भारत की तुलना को लेकर 2008 में इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में द ड्रैगन एंड द एलीफेंट- लर्निंग इन एग्रीकल्चर एंड रूरल रिफॉर्म्स फ्रॉम चाइना एंड इंडिया आर्टिकल छपा था। इसे शेंगजेन फैन और अशोक गुलाटी ने लिखा था। 

 

दोनों ने अपने आर्टिकल में लिखा था, ''विकास दर में समान रुझान के बावजूद, दोनों देशों ने अलग-अलग सुधार मार्ग अपनाए हैं। चीन ने कृषि क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों में सुधारों के साथ शुरुआत की, जबकि भारत ने विनिर्माण क्षेत्र के उदारीकरण और सुधार के साथ शुरुआत की। इन मतभेदों ने अलग-अलग विकास दर और गरीबी में कमी की विभिन्न दरों को जन्म दिया है। कृषि को मार्केट ओरिएंटेड बनाकर, एक ऐसा क्षेत्र बनाया, जिससे अधिकांश लोगों को अपनी आजीविका मिली। इन सुधारों से किसानों को अधिक लाभ मिला और अधिक कुशल संसाधन आवंटन में, जिसने घरेलू उत्पादन आधार को मजबूत किया और अधिक प्रतिस्पर्धा पैदा की। 

ब्राजील : ब्राजील हमेशा से कृषि उत्पादक देश रहा है। यहां की मुख्य फसल गन्ना रही है। यहां काफी, सोयाबीन, कॉर्न की पैदावार होती है। वैसे तो ब्राजील की जीडीपी में कृषि की हिस्सेदारी महज 5.6% है। लेकिन कृषि आधारित उद्योगों का हिस्सा करीब 23.5% है। यह पिछले कुछ सालों में कृषि आधारित उद्योगों में बहुत तेजी आई है। ब्राजील की 15 फीसदी आबादी रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर करती है। सोयाबीन ब्राजील की प्रमुख पैदावार है जिसका खूब निर्यात होता।  

ब्राजील में कैसी है खेती व्यवस्था ?
ब्राजील में नई तकनीक और उर्वरकों ने फसल को फायदा पहुंचाया है। यहां ब्राजील के किसानों, सरकार और संबंधित संगठनों की मिली जुली कोशिश से फसल में भारी उछाल हुआ है। सरकार खेती पर सैटेलाइट के जरिए नजर रख रही है। यहां जीपीएस और ऑटोपायलट की तकनीक का भी इस्तेमाल काफी किया जा रहा है। इसके इस्तेमाल से यह पता लगाया जा रहा है कि किस हिस्से में ज्यादा उर्वरक चाहिए और किस हिस्से में कम। 

एमएसपी, मंडियां और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग पर किस देश में क्या विकल्प

                   


तीन कानून कौन से हैं, जिसका किसान विरोध कर रहे हैं

1- किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020  (The Farmers Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Bill 2020)

अभी क्या व्यवस्था- किसानों के पास फसल बेचने के ज्यादा विकल्प नहीं है। किसानों को एपीएमसी यानी कृषि उपज विपणन समितियों  में फसल बेचनी होती है। इसके लिए जरूरी है कि फसल रजिस्टर्ड लाइसेंसी या राज्य सरकार को ही फसल बेच सकते हैं। दूसरे राज्यों में या ई-ट्रेडिंग में फसल नहीं बेच सकते हैं।

 

किसान क्यों कर रहे विरोध ?
किसानों का कहना है कि MSP का सिस्टम खत्म हो जाएगा। किसान अगर मंडियों के बाहर उपज बेचेंगे तो मंडियां खत्म हो जाएंगी।

2- किसानों (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) का मूल्‍य आश्‍वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 (The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill 2020)

अभी क्या व्यवस्था है- यह कानून किसानों की कमाई पर केंद्रित है। अभी किसानों की कमाई मानसून और बाजार पर निर्भर है। इसमें रिस्क बहुत ज्यादा है। उन्हें मेहनत के हिसाब से रिटर्न नहीं मिलता। 

किसान क्यों कर रहे विरोध ?
कॉन्ट्रैक्ट या एग्रीमेंट करने से किसानों का पक्ष कमजोर होगा। छोटे किसान कैसे कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करेंगे? विवाद की स्थिति में बड़ी कंपनियों को फायदा होगा।

3- आवश्‍यक वस्‍तु (संशोधन) विधेयक, 2020 (The Essential Commodities (Amendment) Bill 

अभी क्या व्यवस्था है- अभी कोल्ड स्टोरेज, गोदामों और प्रोसेसिंग और एक्सपोर्ट में निवेश कम होने से किसानों को लाभ नहीं मिल पाता। अच्छी फसल होने पर किसानों को नुकसान ही होता है। फसल जल्दी सड़ने लगती है।

 
  
किसान क्यों कर रहे विरोध ?
बड़ी कंपनियां आवश्यक वस्तुओं का स्टोरेज करेगी। इससे कालाबाजारी बढ़ सकती है।

क्या है कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग?
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत किसान अपनी फसल के लिए पहले ही कॉन्ट्रैक्ट कर लेता है। इसमें वह किसी और के लिए खेती करता है। किसान को पैसा खर्च नहीं करना पड़ता। इसमें किसान किसी कंपनी या शख्स के साथ अनुबंध करता है। इसी के तहत किसान द्वारा उगाई फसल विशेष को कॉन्ट्रैक्टर एक तय दाम में खरीदेगा। इसमें खाद और बीज से लेकर सिंचाई और मजदूरी सब खर्च कॉन्ट्रैक्टर के ही होते हैं। 

एमएसपी क्या है? 
एमएसपी वह कीमत होती है, जिस पर केंद्र सरकार किसानों से खाद्यान्नों की खरीद करती है। किसानों को लाभकारी मूल्य प्राप्त हो, यह सुनिश्चित करने के लिए केंद्र सरकार एमएसपी का निर्धारण करती है। सरकार ने 22 फसलों के लिए एमएसपी की घोषणा की है लेकिन सार्वजनिक वितरण प्रणाली, जिसके लिए खाद्यान्नों की खरीद की जाती है, मुख्य रूप से लाभार्थियों को गेहूं और चावल का वितरण ही करती है। चूंकि केवल गेहूं और चावल की ही खरीद की जाती है, इसलिए किसान दालों और तिलहन जैसी फसलों की बजाय इन्हीं फसलों की खेती करना पसंद करते हैं। 

सिर्फ पंजाब-हरियाणा के किसान प्रदर्शन क्यों कर रहे, दक्षिण भारत के क्यों नहीं ?
प्रदर्शन कर रहे किसानों का सबसे बड़ा डर है कि सरकार इन तीन बिलों के जरिए एमएसपी और मंडियों को खत्म करने की योजना बना रही है। देशभर के आंकड़ों को देखें तो भारत में सरकार एपीएमसी के जरिए कुल उपज का सिर्फ 10% हिस्सा ही खरीदती है। लेकिन पंजाब में कुल उपज का 90% हिस्सा एपीएमसी की मंडियों में बेचा जाता है। हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भी उपज का 90 प्रतिशत हिस्सा एपीएमसी मंडियों में बेचा जाता है। इन राज्यों में सिर्फ 10% उपज ही खुले बाजार में पहुंचता है। देश के लगभग 6,000 एपीएमसी मंडियों में से 33 फीसदी अकेले पंजाब में ही हैं। पंजाब के छोटे किसानों का कहना है कि वो एपीएमसी के सिस्टम से बाहर जा कर अपना माल बेचेंगे तो प्राइवेट व्यापारी उनका शोषण कर सकते हैं। 

हाल ही में एक रिपोर्ट में सामने आया था कि देश में सिर्फ 6% किसानों को एमएसपी का फायदा मिलता है। इनमें से ज्यादातर किसान पंजाब और हरियाणा से हैं। केंद्र जून में जब अध्यादेश लाई थी, तभी से पंजाब में किसान संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। यही कारण बताया जा रहा है कि पंजाब और हरियाणा के किसान सबसे ज्यादा इसका विरोध कर रहे हैं। 

10 राज्यों के किसानों ने किया बिल का समर्थन
वहीं, दक्षिण भारत या पंजाब हरियाणा को छोड़कर अन्य राज्यों की बात करें तो यहां विरोध ना के बराबर है। दरअसल, अलग अलग राज्यों में अलग अलग कृषि सिस्टम है। जैसे केरल में अधिकतर किसानों ने इन बिलों का समर्थन किया है। क्योंकि केरल में 82 प्रतिशत कोऑपरेटिव्स हैं और वहां किसान इस मॉडल को पसंद करते हैं। वहीं, कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि उत्तर प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, बिहार और हरियाणा के 10 किसान संगठनों ने कृषि कानूनों को सही बताया है और कानूनों को सही बताया। किसानों का कहना है कि इन कानूनों के आने से वे अपनी फसल बेचने के लिए स्वतंत्र होंगे। उन्हें बिचौलियों से भी आजादी मिलेगी। 

किसानों के लिए कैसे हैं 3 नए कृषि कानून, जानिए क्या कहते हैं एक्सपर्ट?
कृषि मामलों के जानकार प्रभु पटैरिया के मुताबिक, किसान बिल का समर्थन या विरोध से पहले इन कानूनों को समझना जरुरी है। पहला कानून कहता है कि किसान अपनी फसल को कृषि उपज मंडी सहित कहीं भी बेच सकता है, जहां उसे ज्यादा दाम मिलें। दूसरा कानून यह सुविधा देता है कि किसान व्यापारी या किसी उद्योगपति से रेट एग्रीमेंट कर खेती कर सकता है, कान्ट्रेक्ट फार्मिंग। तीसरा कानून उपज की स्टॉक लिमिट को हटाता है। 

- इन कानूनों से पहले व्यापारी एक तय मात्रा से ज्यादा आलू-प्याज या अनाज जैसा कोई भी कृषि उत्पाद नहीं खरीद सकता था। 
- किसान को अपनी फसल मंडी में ही बेचने की पाबंदी थी।
- कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को परिभाषित नहीं किया गया था। 

कृषि कानूनों के बाद कैसे बदलेगी किसानों की सूरत- जब गेहूं या आलू प्याज का उत्पादन ज्यादा होता है तो किसान की लागत भी नहीं निकल पाती। हर साल किसान सड़क पर प्याज और सब्जियां फेंकता है। स्टॉक लिमिट होने से गेहूं, धान या दलहन की ज्यादा उपज होने पर भी किसान का माल मंडी तक में व्यापारी नहीं लेता। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसान फूड प्रोसेसिंग करने वाले या व्यापारी के साथ रेट कॉन्ट्रैक्ट कर सकता है जिसका फायदा उसे मिलेगा। अभी होशंगाबाद में ही देश का पहला मामला सामने आया जिसमें फार्च्यून राइस लिमिटेड ने कॉन्ट्रैक्ट करने के बाद भी माल नहीं उठाया तो एसडीएम कोर्ट के आदेश पर उसे खरीदना पड़ा। वजह जो बताई जा रही है कि धान का फ्लैट रेट 2950 रुपए होने पर खरीदी कंपनी ने बंद कर दी थी, जबकि 1500 के रेट पर वह खरीद रही थी। नया कानून इस लिहाज से किसानों के लिए फायदेमंद है। 

वहीं स्टॉक लिमिट नहीं होने से खरीददार ज्यादा माल ले सकेंगे तो बाजार में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और दाम अधिक मिलने की संभावना है। दूसरे किसान को अब मंडी में जाकर माल बेचने की बाध्यता नहीं होगी। वो ई-मंडी से या किसी और तरीके से भी किसी भी व्यापारी को माल बेच सकता है, जहां उसे ज्यादा कीमत मिले। इससे उसे अनाज के परिवहन और बारदाने आदि का खर्च भी बच सकता है। किसान स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू करने के साथ जहां हर जिंस की एमएसपी की बात कर रहे हैं, जो बहुत से कृषि उत्पादों की एमएसपी निर्धारित है, लेकिन अभी खरीदी सरकारी स्तर पर होती है एमएसपी पर। उनकी इस मांग पर यदि व्यापारियों के लिए भी एमएसपी पर खरीदने की बंदिश हो जाए तो किसानों को फायदा होगा।

कृषि कानून : किसानों में क्या है भ्रम और क्या कहते हैं फैक्ट्स ?

कृषि कानूनों को लेकर सबसे बड़ी चिंता एमएसपी की है। किसानों को डर है कि नए कानून से एमएसपी और मंडियां खत्म हो जाएंगी। जबकि सरकार साफ कर चुकी है कि ऐसा नहीं होगा। 

  
सरकार के आश्वासन के बाद भी किसान क्यूं पीछे नहीं हट रहे हैं। आखिर किसान किन-किन प्वाइंट पर अड़े हैं ?
किसान तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। वे इन कानूनों में संसोधन के लिए तैयार नहीं हैं। किसान संगठन एमएसपी से कम मूल्य को दंडनीय अपराध के दायरे में लाने की मांग भी कर रहे हैं। इसके अलावा धान-गेहूं की फसल की सरकारी खरीद को सुनिश्चित करने की मांग भी कर रहे हैं। इन मांगों को लेकर सरकार और किसानों के बीच कई स्तर की बात हो चुकी है। लेकिन अभी बात नहीं बनी। जबकि सरकार एमएसपी बरकरार रखने और मंडियों को जारी रखने का लिखित आश्वासन देने के लिए भी तैयार हैं। (पूरी खबर पढ़ने के लिए क्लिक करेंएमएसपी पर लिखित में भरोसा, कुर्क नहीं होगी जमीन, जानिए किसानों की मांग पर सरकार ने क्या प्रस्ताव दिया ?)

क्या किसान आंदोलन को राजनीतिक हवा दी जा रही है?
सरकार का तो यही आरोप है। हालांकि, सरकार ने अभी तक खुले तौर पर राजनीतिक आंदोलन तो नहीं कह रही है, लेकिन तमाम केंद्रीय मंत्री इसे राजनीतिक साजिश करार दे चुके हैं। इतना ही नहीं, केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने इस आंदोलन के पीछे माओवादी और नक्सलियों के हाथ होने की भी आशंका जताई है। हालांकि, यह साफ है कि किसानों का यह मुद्दा ऐसा है, जिसे कोई भी राजनीतिक पार्टी मोदी सरकार को घेरने के लिए हाथ से नहीं जाने देना चाहती। 
यही वजह है कि किसानों के बंद को कांग्रेस, सपा, आप, तृणमूल कांग्रेस, टीआरएस, वाम दल, बसपा, राजद, द्रमुक समेत 18 पार्टियों ने समर्थन किया था। हालांकि, पंजाब और राजस्थान, दिल्ली को छोड़कर किसी राज्य में इसका ज्यादा असर देखने को नहीं मिला। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल एक दिन के लिए उपवास पर बैठे। वहीं, सपा उत्तर प्रदेश में किसान रैली निकाल रही है। इसके तहत सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने गिरफ्तारी भी दी। उधर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, एनसीपी चीफ शरद पवार, लेफ्ट नेता सीताराम येचुरी समेत तमाम नेताओं ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात कर कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग की थी। 

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आंदोलन के लिए फंड कहां से आ रहा?
किसान आंदोलन को लेकर एक बड़ा सवाल उठ रहा है कि फंड कहां से आ रहा है। दरअसल, इन आंदोलन को लेकर तीन चार महीने पहले से तैयारी की गई है। यहां तक की पंजाब और हरियाणा के 30 से ज्यादा किसान संगठनों ने इसके लिए चंदा किया है। इस आंदोलन में शामिल होने आए किसान भी अपना खर्चा उठा रहे हैं। वे अपने साथ ट्रालियों में भरकर राशन लेकर आए हैं। बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, कीर्ति किसान यूनियन के एक सदस्य ने बताया कि उनके पास इस आंदोलन के लिए 30 लाख रुपए हैं। इनमें से 15 लाख रुपए खर्च हो चुके हैं। पंजाब के सभी किसान संगठनों की बात करें तो अब तक करीब 15 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। संगठनों ने गांव से लेकर जिला स्तर तक रुपए इकट्ठा किए हैं। इन रुपयों का पूरा हिसाब भी है। 

एनआरआई भेज रहे पैसा
इन आंदोलन के लिए एनआरआई बड़े पैमाने पर फंड भेज रहे हैं। ये एनआरआई विदेशों में रहने वाले पंजाब के लोग हैं। इतना ही नहीं कनाडा, ब्रिटेन में कई जगहों पर कृषि कानूनों के विरोध में प्रदर्शन भी किए जा रहे हैं। इसका बड़ा कारण यह है कि इन देशों में बड़ी संख्या में पंजाबी रहते हैं। 

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भारत में कृषि कानूनों के विरोध में किसानों के प्रदर्शन को कनाडा ने समर्थन दिया है। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने हाल ही में कहा था, कनाडा भारत में प्रदर्शन कर रहे किसानों का समर्थन करता है। उन्होंने कहा, वह अपने अधिकारों के लिए शांति पूर्व प्रदर्शन कर रहे किसानों का समर्थन करते हैं। इससे पहले गुरु नानक जयंती पर जस्टिन ट्रूडो ने कनाडा में सिखों को संबोधित करते हुए किसान प्रदर्शन पर बयान दिया था। उन्होंने कहा था, भारत से किसानों के प्रदर्शन को लेकर जो खबरें आ रही हैं, वो चिंताजनक हैं। हमें आप लोगों के परिजनों और दोस्तों की बहुत चिंताएं हैं।

मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार में 2 हजार 505 रुपए बढ़ी किसानों की आय
मोदी सरकार 2014 में सत्ता में आई थी, तब किसानों की कमाई 2022 तक दोगुनी करने का लक्ष्य रखा था। समयसीमा में सिर्फ 2 साल का समय बचा है। लेकिन मनमोहन सिंह सरकार के बाद मोदी सरकार तक किसानों की महीने की कमाई महज 2 हजार 505 रुपए ही बढ़ी। मनमोहन सरकार में हुए सर्वे में किसानों की हर महीने की कमाई 6,426 रुपए बताई गई थी। वहीं, मोदी सरकार में हुए सर्वे में किसानों की कमाई 8,931 रुपए बताई। 

नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, 2016-17 में किसान परिवारों की हर महीने की कमाई 8 हजार 931 रुपए थी। यानी, सालाना 1 लाख 7 हजार 172 रुपए। इनमें भी सबसे ज्यादा कमाई पंजाब और हरियाणा के किसान के किसानों की होती है। पंजाब में किसान हर महीने 23 हजार 133 रुपए और हरियाणा में 18 हजार 496 रुपए कमाई करते हैं। वहीं, नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस ने 2013 में किसानों की कमाई और खर्च का एक सर्वे किया था। 2013 में किसानों की हर महीने की कमाई 6 हजार 426 रुपए थी। यानी, साल भर में 77 हजार 112 रुपए की कमाई। कमाई के मामले में उस वक्त भी हरियाणा और पंजाब के किसान आगे थे।

ये भी पढ़ें: केंद्र के कृषि कानूनों के बाद राज्यों ने क्या कदम उठाए

कांग्रेस ने हाल ही में लागू किए गए कृषि कानूनों पर केंद्र का विरोध करते हुए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर खरीद की कानूनी गारंटी देने के लिए जोर दिया, लेकिन पार्टी द्वारा शासित राज्य पंजाब, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के स्वर एक जैसे नहीं दिखे। इन तीन राज्यों ने अपने किसानों को केंद्रीय कानूनों के दायरे से बाहर रखने की मांग करते हुए फार्म बिल पारित किए हैं, लेकिन कानूनी रूप से एमएसपी को लेकर तीनों राज्यो में एकरूपता नहीं दिखी।
 
1- पंजाब का बिल केवल गेहूं और धान के लिए एमएसपी गारंटी के बारे में है। अन्य फसलों को लेकर नहीं है। कृषि के जानकार इस बात पर सवाल उठा रहे हैं कि बिल में सिर्फ दो फसलों का जिक्र क्यों है, जबकि पंजाब में कपास, मक्का, दाल और दूध का उत्पादन बड़े स्तर पर होता है और राज्य सरकार इसकी एमएसपी तय करती है।

2- राजस्थान के बिल केवल कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग के मामले में एमएसपी गारंटी देते हैं। मंडी में एमएसपी का प्रावधान नहीं किया गया है। सरकार की ओर से पारित किए गए इस नए बिल का किसान महापंचायत ने विरोध किया था। 

3- छत्तीसगढ़ का बिल MSP को कानूनी गारंटी देने के मुद्दे पर अस्पष्ट है। यहां नए कानून में सरकार ने निजी मंडियों, गोदामों और खाद्य प्रसंस्करण कारखानों को डीम्ड मंडी घोषित करने का प्रावधान कर दिया है। इस नई व्यवस्था से निजी मंडियों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ जाएगा। सरकार की कोशिश है कि जहां कहीं भी कृषि उपजों की खरीद बिक्री हो, वहां मंडी कानून लागू हो ताकि किसानों को धोखाधड़ी से बचाया जा सके।

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किसान आंदोलन पर देश-दुनिया क्या कह रही है

किसानों के प्रदर्शन पर राजनीतिक दल, बॉलीवुड स्टार, क्षेत्रीय अभिनेता, खिलाड़ी लगातार अपनी बात रख रहे हैं। पंजाब में खिलाड़ियों और नेताओं ने सम्मान लौटाने की घोषणा की है। यहां तक की एनडीए में भाजपा के सहयोगी पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान लौटाने की घोषणा की है। ओलंपिक पदक विजेता बॉक्सर विजेंदर सिंह ने भी कहा, अगर किसानों की बात नहीं मानी गई तो वे अपना खेल रत्न लौटा देंगे। पंजाब के कई ओलंपिक और नेशनल खिलाड़ी किसानों के समर्थन में खड़े हैं। 

वहीं, कनाडा भी भारत में हो रहे इन प्रदर्शनों पर बयान दे रहे हैं। भारत ने कनाडा के उच्चायुक्त को तलब भी किया था। ब्रिटेन में कई सांसदों ने किसानों के प्रदर्शन का समर्थन किया। वहीं, न्यूयॉर्क टाइम्स और गार्डियन, गल्फ न्यूज समेत दुनिया के तमाम बड़ी मीडिया संस्थान लगातार इस आंदोलन पर खबर चला रहे हैं।

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