भारत के 'टॉप गन' की कहानी, 1971 की जंग में पाकिस्तानी वायुसेना के ठिकानों को तबाह कर तोड़ दिया था मनोबल

TCDTS भारत का पहला 'टॉप गन' स्कूल है। यहां से ट्रेनिंग लेने वाले पायलटों ने 1971 की लड़ाई में पाकिस्तानी वायु सेना के ठिकानों पर हमला किया था। इससे पाकिस्तानी वायु सेना का मनोबल टूट गया था। 
 

Asianet News Hindi | Published : Sep 1, 2022 11:13 AM IST / Updated: Sep 01 2022, 04:47 PM IST

नई दिल्ली। हवा में विमानों के बीच होने वाली लड़ाई का इतिहास विमानों के इतिहास जितना पुराना है। 1940 और 1950 के दशक में भारतीय वायु सेना के पायलट हवाई लड़ाई की ट्रेनिंग के लिए ब्रिटेन के रॉयल एयर फोर्स की ओर देखते थे। उस समय केवल चंद पायलट ही अच्छी ट्रेनिंग कर पाते थे। 

इस परेशानी को देखते हुए भारतीय वायु सेना ने अपने पायलटों की ट्रेनिंग के लिए अन्य विकल्प खंगाले। 1950-52 के दौरान वायु सेना ने चार पायलटों को रॉयल ऑस्ट्रेलियन एयर फोर्स के साथ पायलट अटैक इंस्ट्रक्टर कोर्स करने के लिए भेजा। वहीं, मध्य 1950 तक कुछ पायलटों को यूके (United Kingdom) भेजा गया था। योजना थी कि विदेश से ट्रेनिंग लेकर आए पायलट भारतीय वायु सेना के पायलटों को ट्रेनिंग देंगे।

1950 हुई आर्मामेंट ट्रेनिंग विंग की स्थापना
इसके बाद वायु सेना ने A-to-G रेंज की खोज शुरू की। 1950 में महाराजपुर, जामनगर, भोपाल, अमरदा रोड और चोलावरण पर विचार किया गया। इनमें से जामनगर को चुना गया। इसका नाम आर्मामेंट ट्रेनिंग विंग (एटीडब्ल्यू) रखा गया। जहां एक पूरे स्क्वाड्रन के ट्रेनिंग की व्यवस्था की गई। पीएआई स्कूल 1956 में स्थापित किया गया था। विंग कमांडर जीडी 'नोबी' क्लार्क ने स्कूल का निर्देशन किया। उन्होंने 1951 में रॉयल ऑस्ट्रेलियन एयर फोर्स के साथ ट्रेनिंग लिया था। वह पहले कमांडिंग ऑफिसर और बाद में मुख्य प्रशिक्षक बने। 

विदेश में लेनी होती थी हमला करने की ट्रेनिंग
इस देसी टॉपगन स्कूल से पहला ग्रेजुएट अप्रैल 1958 में निकला। वह पीएआई कोर्स में पहले नंबर पर आए थे। इसके बाद 1958-70 तक यहां कुल 24 कोर्स कराए गए और करीब 200 पायलटों ने ट्रेनिंग ली। इनमें से तीन पायलट बाद में वायुसेना अध्यक्ष बने। उस समय इस स्कूल में पायलटों को लड़ाकू विमान उड़ाने और स्क्वाड्रन के रूप में साथ उड़ान भरने की ट्रेनिंग मिलती थी। हवा से जमीन पर हमला करने और हवा में होने वाली लड़ाई के पैतरे सीखने के लिए पायलटों को अभी भी दूसरे देशों में जाना पड़ता था।

यूके में लड़ाई की ट्रेनिंग लेते थे पायलट
लड़ाकू विमानों के बीच हवा में होने वाली लड़ाई की ट्रेनिंग के लिए वायु सेना को अपने पायलट यूनाइटेड किंगडम भेजना पड़ता था। पायलट वहां हंटर विमानों पर डे फाइटर लीडर कोर्स (DFL)  करते थे। जॉनी ग्रीन, दिलबाग सिंह और एस 'रैग्स' राघवेंद्रन जैसे कई दिग्गजों ने इस पाठ्यक्रम में भाग लिया था। उन्होंने भारत में ही अपने पायलटों की ऐसी ट्रेनिंग की व्यवस्था की सिफारिश की।

ब्रिटेन ने बंद कर दिया था डीएफएल कोर्स
1957 में ब्रिटेन ने अपनी रक्षा नीति की समीक्षा की, जिसके बाद पारंपरिक युद्ध पर ध्यान कम किया गया और डीएफएल पाठ्यक्रम को रोक दिया गया। इससे भारतीय पायलटों का ब्रिटेन में ट्रेनिंग लेना बंद हो गया। इसके बाद 1960 तक वायुसेना ने अपने पायलटों को ट्रेनिंग दिलाने के लिए कई छिटपुट प्रयास किए। 

रैग्स राघवेंद्रन ने इसी तरह के प्रयास किए, लेकिन पैसे और स्वीकृति की कमी का सामना करना पड़ा। इस दौरान 1962 और 1965 में भारत को चीन और पाकिस्तान के साथ दो जंग लड़ना पड़ा। 1972 तक वायुसेना के पायलट को फाइटर लीडर की ट्रेनिंग नहीं मिल पाई। 1965 की लड़ाई ने पायलटों की तत्काल ट्रेनिंग की जरूरत को उजागर कर दिया।

इन प्रयासों को तब गति मिली जब एयर चीफ मार्शल पीसी लाल ने डीटीई ऑफ ऑफ ऑपरेशंस ग्रुप कैप्टन ऑब्रे माइकल के तहत एक यूनिट स्थापित करने की मंजूरी दी। इसके बाद स्क्वाड्रन लीडर डेन्जिल कीलोर ने इस सेटअप की योजना बनाई और इसे स्थापित किया। ऑब्रे को उनके प्रयासों के लिए अति विशिष्ट सेवा पदक से सम्मानित किया गया था। कीलोर बाद में एयर मार्शल के रूप में सेवानिवृत्त होकर टेक्टिक्स एंड एयर कॉम्बैट डेवेलपमेंट इस्टैब्लिशमेंट की कमान संभाली।

TCDTS ने रचा था इतिहास
TCDTS (Tactics and Combat Development and Training Squadron)  यूनिट में उस समय भारतीय वायु सेना में मौजूद सबसे अच्छे लड़ाकू विमानों MiG-21 और Su-7 को शामिल किया गया। 1 फरवरी 1971 को वायुसेना के चुने हुए 211 अधिकारियों को इस यूनिट में शामिल किया गया। एक साल के प्रयोग के बाद यह यूनिट इतिहास रचने की ओर बढ़ गई।

टीसीडीटीएस 1971 में अंबाला चला गया। यहां यूनिट ने काम शुरू किया तभी युद्ध के बादल छाने लगे। TCDTS को पाकिस्तानी वायु सेना के ठिकानों पर 150-200 मीटर की ऊंचाई पर उड़ते हुए रात में हमला करने का काम दिया गया। इस ऑपरेशन की चुनौती यह थी कि मिग-21 और एसयू-7 विमान रात में इतनी कम ऊंचाई पर उड़ने के लिए जरूरी उपकरणों से लैस नहीं थे। इसके साथ ही पायलटों को भी इसकी ट्रेनिंग नहीं मिली थी। कम समय में टीसीडीटीएस ने इस ऑपरेशन की तैयारी की। 

पाकिस्तानी वायुसेना के ठिकानों पर किया हमला
टीसीडीटीएस ने पाकिस्तानी वायुसेना के प्रमुख ठिकानों पर रात में हमला किया। लड़ाई के दौरान टीसीडीटीएस के पायलटों ने 293 उड़ानें भरीं। इन हमलों से पाकिस्तान को भारी नुकसान हुआ। उसके मनोबल पर उनका मनोबल टूट गया। मई 1972 में विंग कमांडर ए श्रीधरन ने कार्यभार संभाला। उनके दो साल के कार्यकाल के दौरान यूनिट का नाम बदलकर टैक्टिक्स एंड कॉम्बैट डेवलपमेंट एंड ट्रेनिंग एस्टैब्लिशमेंट या टीएसीडीई कर दिया गया और इसे जामनगर ट्रांस्फर कर दिया गया। इसने बड़े पैमाने पर रणनीति विकसित की। यहां से फाइटर कॉम्बैट लीडर कोर्स चलाया जाने लगा।

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1973 में शुरू हुआ फाइटर कॉम्बैट लीडर कोर्स 
पहला फाइटर कॉम्बैट लीडर कोर्स मई 1973 में शुरू हुआ। इसमें तीन पायलट थे। स्क्वाड्रन लीडर एवाई टिपनिस (बाद में वायु सेना प्रमुख) ने पहले कोर्स के सर्वश्रेष्ठ फाइटर लीडर के रूप में ट्रॉफी जीती। जून 1982 में MiG-21FL और Su-7 को पुराना होने के चलते वायु सेना से हटा दिया गया और MiG-21Bis और MiG-21M/MF को टीसीडीटीएस में लाया गया। अगले 12 साल तक टीसीडीटीएस ने पायलटों को सिर्फ MiG-21 विमानों से ट्रेनिंग दी।

1989-97 के बीच टीसीडीटीएस का तेजी से विस्तार हुआ। यहां 1989 में फाइटर स्ट्राइक लीडर और मास्टर फाइटर कंट्रोलर कोर्स शुरू किया गया। मिसाइल कॉम्बैट क्रू को भी ट्रेनिंग का हिस्सा बनाया गया। 1994 में मिग-27 को MiG-21M से बदला गया। 1997 में यहां हेलिकॉप्टर कॉम्बैट लीडर कोर्स शुरू हुआ। 2000 में TACDE 28 साल बाद जामनगर से ग्वालियर चला गया। 2010 में Su-30 को ट्रेनिंग के लिए लाया गया।

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