
1975 Emergency: भारत में आपातकाल लागू हुए कई दशक बीत चुके हैं लेकिन इसका जिक्र आज भी लोकतंत्र के सबसे काले दौर के रूप में किया जाता है। जब-जब यह तारीख आती है, तब-तब देश उस समय के हालात को याद कर सिहर उठता है। यह भारतीय इतिहास का ऐसा पहला अवसर था जब देश ने लोकतंत्र पर ऐसा गंभीर संकट देखा। आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक करीब 21 महीने चला था। उस वक्त देश की पूरी सत्ता इंदिरा गांधी के हाथ में थी। उन्होंने सीधे फैसले लेने शुरू कर दिए और लोगों के अधिकार छीन लिए गए थे।
आपातकाल के समय सरकार ने उनके खिलाफ में बोलने वालों पर सख्त कार्रवाई की। कई राजनीतिक नेताओं, समाजसेवियों और पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था। बिना किसी मुकदमे के करीब 1 लाख लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नांडीस जैसे बड़े नेता भी शामिल थे।
आपातकाल के दौरान मीडिया पर सख्त नियंत्रण लगा दिया गया था। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले अखबारों को कोई भी खबर छापने से पहले सरकार से इजाजत लेनी पड़ती थी। जो अखबार सरकार के खिलाफ सच लिखना चाहते थे, उन्हें ऐसा करने से रोक दिया गया। The Indian Express जैसे कुछ साहसी अखबारों ने इसका विरोध करते हुए अपने संपादकीय पन्ने खाली छोड़ दिए। आज भी ये खाली पन्ने प्रेस की आजादी और उस दौर के विरोध का प्रतीक माने जाते हैं।
आपातकाल के दौरान लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव रोक दिए गए थे। इससे देश के लोकतंत्र को बड़ा झटका लगा। जनता को अपनी बात कहने का मौका नहीं मिला और सरकार ने एकतरफा तरीके से सत्ता चलानी शुरू कर दी।
आपातकाल के दौरान सरकार ने ‘मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट’ जैसे कड़े कानूनों का इस्तेमाल विरोधियों को दबाने के लिए किया। इस कानून के तहत लोगों को बिना किसी आरोप या मुकदमे के सीधे जेल में डाल दिया गया। इन कानूनों का उपयोग राजनीतिक विरोधियों से बदला लेने के लिए खुलेआम किया गया।
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जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर सरकार ने एक बड़ा नसबंदी अभियान चलाया, जिसकी जिम्मेदारी संजय गांधी ने संभाली। इस अभियान में लाखों लोगों की जबरन नसबंदी की गई। कई जगहों पर तो लोगों को जबरदस्ती पकड़कर ऑपरेशन थिएटर में ले जाया गया। इस क्रूर अभियान का समाज पर गहरा असर पड़ा और लोगों में डर और नाराजगी फैल गई।
दिल्ली के तुर्कमान गेट जैसे क्षेत्रों में झुग्गी-झोपड़ियों को जबरन हटाया गया। हजारों गरीबों को बेघर कर दिया गया। जब लोगों ने विरोध किया तो पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी कर दी, जिसमें कई लोगों की जान चली गई। ये घटनाएं आज भी आपातकाल की क्रूरता की याद दिलाती हैं और अब भी इन पर विवाद बना हुआ है।
आपातकाल के दौरान सरकार ने कई संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया, जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और जमात-ए-इस्लामी जैसे प्रमुख संगठन शामिल थे। सिर्फ यही नहीं, कांग्रेस पार्टी के अंदर भी जो नेता इंदिरा गांधी के खिलाफ बोले, उन्हें चुप करा दिया गया या सख्त सजा दी गई। इससे लोकतंत्र के भीतर की आवाजें भी दबा दी गईं।
जब आपातकाल लागू करने का फैसला लिया गया, तो तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इस पर कोई आपत्ति नहीं जताई। वह इस फैसले के लिए तुरंत तैयार हो गए और आधिकारिक मुहर लगा दी गई।
आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता को और मजबूत करने के लिए संविधान में कई अहम बदलाव किए। उन्होंने कानूनों को इस तरह संशोधित कराया कि संसद सिर्फ एक औपचारिक मुहर लगाने वाली संस्था बनकर रह गई। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को दरकिनार कर फैसले सीधे लिए जाने लगे। संविधान का मूल स्वरूप बदलने की कोशिश की गई, ताकि किसी भी तरह की कानूनी चुनौती से बचा जा सके।
मार्च 1977 में जब आखिरकार देश में आम चुनाव कराए गए, तो जनता ने इसका तीखा विरोध दर्ज कराया। इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी को करारी शिकस्त मिली। जनता पार्टी ने भारी बहुमत से सरकार बनाई और पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार केंद्र में आई। यह जनादेश सिर्फ एक राजनीतिक बदलाव नहीं था, बल्कि आपातकाल की ज्यादतियों के खिलाफ देश की जनता का स्पष्ट और निर्णायक जवाब था।