
नई दिल्ली। ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में रहने वाले शिबा शंकर जेना (Shiva Shankar Jena) की कहानी सुनकर हर कोई हैरान और प्रेरित हो जाता है। आज के समय में ज्यादातर लोग अपनी कमाई बढ़ाने, खर्चों को पूरा करने और भविष्य सुरक्षित करने में ही लगे रहते हैं। लेकिन भुवनेश्वर का यह साधारण-सा चाय बेचने वाला युवक हर साल जनवरी महीने की अपनी पूरी कमाई दान कर देता है। यह काम वह शोहरत पाने के लिए नहीं करता, न ही इसके पीछे कोई राजनीतिक या सामाजिक प्रचार है। यह केवल एक दिल से निकली हुई इंसानियत है, जो उसके बचपन के दर्द, संघर्ष और मुश्किलों से पैदा हुई है।
शिबा की जिंदगी आसान नहीं रही। पिता का निधन तब हो गया जब वह केवल 11 साल के थे। घर का खर्च, छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी और खुद की पढ़ाई-सब कुछ एकदम ठहर गया। स्टेशन के बाहर चाय बेचनी पड़ी, कई बार भूखे सोना पड़ा और कई बार मौसम की मार झेलनी पड़ी। लेकिन यही संघर्ष उनके अंदर वह समझ पैदा कर गया जिसने उन्हें आज एक Real-Life Hero बना दिया।
लोग अक्सर पूछते हैं कि “एक चायवाला, जो खुद इतने संघर्ष से निकला है, वह क्यों हर साल एक महीने की कमाई दान कर देता है?” इसका जवाब शिबा के बचपन में छिपा है। पिता की मौत के बाद जो मुश्किलें उन्होंने देखीं, उसने उन्हें सिखाया कि गरीबी से लड़ने में सबसे बड़ी ताकत है समय पर मिली मदद। जब वह छोटे थे, अगर किसी ने उनकी पढ़ाई, कपड़ों या खाने में थोड़ा भी साथ दिया होता, तो शायद उनका सफर थोड़ा आसान होता। इसी सोच ने उनके मन में एक दृढ़ इच्छा पैदा कर दी कि “अगर मैं किसी और बच्चे की जिंदगी आसान कर सकता हूं, तो यह मेरा फर्ज है।” यही कारण है कि जैसे ही उनकी आर्थिक स्थिति थोड़ी ठीक हुई, उन्होंने एक फैसला लिया कि हर साल जनवरी की पूरी कमाई जरूरतमंद बच्चों पर खर्च करूंगा।
आप सोच सकते हैं कि एक छोटे चाय स्टॉल से कितनी कमाई होती होगी। लेकिन शिबा शंकर जेना पैसों की मात्रा नहीं, बल्कि उनकी नीयत को महत्व देते हैं।
जनवरी की जो भी कमाई होती है-
उनका परिवार भी उन्हें पूरा सहयोग करता है, जबकि वे खुद एक बहुत साधारण जिंदगी जीते हैं। शायद इसीलिए भुवनेश्वर में लोग उन्हें सिर्फ चायवाला नहीं, बल्कि “दिल वाला चायवाला” कहते हैं।
आज जब देशभर में नेगेटिव खबरें ज़्यादा दिखती हैं, ऐसे में शिबा जैसे लोग बताते हैं कि इंसानियत अभी भी जिंदा है। उनकी पहल ने कई बच्चों की जिंदगी बदल दी है। कोई बच्चा स्कूल न छोड़ दे, कोई दवा के बिना न रहे, कोई मजबूरी में अपना भविष्य न खो दे-इन्हीं भावनाओं के साथ शिबा हर साल जनवरी का महीना दूसरों के नाम कर देते हैं। वे कहते हैं कि “मैंने दुख झेला है, इसलिए समझता हूँ कि मदद कितनी जरूरी होती है।” उनकी कहानी यह सिखाती है कि बड़ा बनने के लिए पैसे नहीं, बड़ा दिल चाहिए।