शरद अरविंद बोबड़े : चुनौतीपूर्ण समय में मुश्किल सफर पर निकला कानून का हाकिम

अयोध्या मामले की सुनवाई और धर्म को लेकर चल रही तमाम चर्चाओं के बीच न्यायमूर्ति बोबड़े का मानना है कि भारत में कानून का शासन ही धर्म है और यह व्यवस्था प्राचीन भारत में ही अपनी जड़े जमा चुकी थी। वह अयोध्या के मसले को आस्था और धर्म का नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ कानूनी मसला मानते हैं।

नई दिल्ली: निजता के अधिकार के पक्षधर, न्यायपालिका तक आम आदमी की पहुंच न होने से परेशान, पर्यावरण को बचाने के लिए फिक्रमंद, अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चल रही चर्चाओं से चिंतित और अयोध्या के मसले को आस्था और धर्म का नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ कानूनी मसला मानने वाले न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबडे इस चुनौतीपूर्ण समय में देश की सबसे बड़ी अदालत के सबसे बड़े हाकिम के तौर पर एक मुश्किल सफर पर निकल रहे हैं।

वकीलों के परिवार में हआ था बोबड़े का जन्म

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महाराष्ट्र के नागपुर जिले में वकीलों के परिवार में 24 अप्रैल 1956 को जन्मे शरद के दादा एक वकील थे। उनके पिता अरविंद बोबड़े  1980 और 1985 में महाराष्ट्र के एडवोकेट जनरल थे। उनके बड़े भाई स्वर्गीय विनोद अरविंद बोबड़े सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और उम्दा संविधान विशेषज्ञ थे। शरद अरविंद बोबड़े ने नागपुर के ही एसएफएस कालेज से ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के बाद 1978 में नागपुर विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई पूरी की। किताबी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने 13 सितंबर 1978 में वकील के तौर पर रजिसट्रेशन कराया। 

1998 में शुरू किया वकालत का सफर

अपने करियर के दौरान उन्होंने मुंबई हाई कोर्ट की नागपुर बैंच में प्रैक्टिस की और करीब 20 साल तक तमाम कानूनों की पेचीदगियों से वाकिफ होने और बहुत से मुकदमों में हार जीत के पड़ावों से गुजरने के बाद 1998 में सीनियर एडवोकेट बने। वकालत के अपने सफर में उन्होंने वर्ष 2000 में एक और पड़ाव पार किया, जब 29 मार्च 2000 में उन्हें मुंबई हाई कोर्ट में अतिरिक्त जज बनाया गया। कुछ बरस बाद उन्होंने अपने करियर में एक और मील का पत्थर पार किया, जब 16 अक्टूबर 2012 को उन्हें मध्य प्रदेश हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया। इसके छह माह बाद ही 12 अप्रैल 2013 को वह एक कदम और आगे बढ़े और देश की शीर्ष अदालत में न्यायाधीश बने।

18 नवंबर को लेंगे शपथ

देश के 47वें प्रधान न्यायाधीश पद के लिए मनोनीत न्यायमूर्ति शरद अरविन्द बोबड़े को राष्ट्रपति राम नाथ कोविद 18 नवंबर को नए चीफ जस्टिस के रूप में शपथ दिलाएंगे, लेकिन इस सम्मानित पायदान पर पहुंचने से पहले ही न्यायमूर्ति बोबड़े का नाम करीब 135 साल पुराने और राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद का 15 नवंबर तक ऐतिहासिक फैसला सुनाने वाली संविधान बैंच के सदस्य के रूप में इतिहास में दर्ज होने जा रहा है।

अयोध्या मामले की सुनवाई और धर्म को लेकर चल रही तमाम चर्चाओं के बीच न्यायमूर्ति बोबड़े का मानना है कि भारत में कानून का शासन ही धर्म है और यह व्यवस्था प्राचीन भारत में ही अपनी जड़े जमा चुकी थी।

सुलझी हुई सोच के धनी हैं बोबड़े

न्यायिक हलकों में न्यायमूर्ति बोबड़े का नाम आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है और जनहित से जुड़े कई मामलों पर उनके आदेश एक नजीर हैं। उनकी सुलझी हुई राय और कानून की समझ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि न्यायमूर्ति बोबड़े उस तीन सदस्यीय समिति के अध्यक्ष थे जिसका वर्तमान प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिए गठन हुआ था। इस समिति के अन्य सदस्यों में दो महिला न्यायाधीश भी शामिल थीं।ॉ

 

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