कांग्रेस पर शिवसेना का तंज, यूपीए की हालत NGO जैसी, इसकी जिम्मेदारी शरद पवार को सौंप देना चाहिए

शिवसेना ने सामना के जरिए विपक्ष पर निशाना साधा है। सामना के संपादकीय में लिखा गया, दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन शुरू है। इस आंदोलन को लेकर दिल्ली के सत्ताधीश बेफिक्र हैं। सरकार की इस बेफिक्री का कारण देश का बिखरा हुआ और कमजोर विरोधी दल है। फिलहाल, लोकतंत्र का जो अधोपतन शुरू है, उसके लिए भारतीय जनता पार्टी या मोदी-शाह की सरकार जिम्मेदार नहीं है, बल्कि विरोधी दल सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। 

Asianet News Hindi | Published : Dec 26, 2020 5:26 AM IST / Updated: Dec 26 2020, 03:43 PM IST

मुंबई. शिवसेना ने सामना के जरिए विपक्ष पर निशाना साधा है। सामना के संपादकीय में लिखा गया, दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन शुरू है। इस आंदोलन को लेकर दिल्ली के सत्ताधीश बेफिक्र हैं। सरकार की इस बेफिक्री का कारण देश का बिखरा हुआ और कमजोर विरोधी दल है। फिलहाल, लोकतंत्र का जो अधोपतन शुरू है, उसके लिए भारतीय जनता पार्टी या मोदी-शाह की सरकार जिम्मेदार नहीं है, बल्कि विरोधी दल सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। वर्तमान स्थिति में सरकार को दोष देने की बजाय विरोधियों को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है।

विरोधी दल पूरी तरह से दिवालिएपन के हाशिए पर खड़ा है
विरोधी दल के लिए एक सर्वमान्य नेतृत्व की आवश्यकता होती है। इस मामले में देश का विरोधी दल पूरी तरह से दिवालिएपन के हाशिए पर खड़ा है। गुरुवार को कांग्रेस ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के नेतृत्व में किसानों के समर्थन में एक मोर्चा निकाला। राहुल गांधी और कांग्रेस के नेता दो करोड़ किसानों के हस्ताक्षर वाला निवेदन पत्र लेकर राष्ट्रपति भवन पहुंचे, वहीं विजय चौक में प्रियंका गांधी आदि नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। 

"भाजपा की ओर से इस बात की खिल्ली उड़ाई गई"
गत 5 वर्षों में कई आंदोलन हुए। सरकार ने उनको लेकर कोई गंभीरता दिखाई हो, ऐसा नहीं हुआ। यह विरोधी दल की ही दुर्दशा है। सरकार के मन में विरोधी दल का अस्तित्व ही नहीं है। दिल्ली की सीमा पर आंदोलन करने वाले किसान वापस नहीं लौटने वाले, संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाओ और तीनों कृषि कानूनों को वापस लो। किसानों और कामगारों से चर्चा न करते हुए उन पर लादे गए कानून मोदी सरकार को हटाने ही होंगे, ऐसा राहुल गांधी ने राष्ट्रपति से मिलकर कहा। भाजपा की ओर से इस बात की खिल्ली उड़ाई गई। 

"कृषि मंत्री को भी देश का किसान गंभीरता से नहीं लेता"
राहुल गांधी की बातों को कांग्रेस भी गंभीरता से नहीं लेती, ऐसा कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कहा। हमारे सर्वोच्च नेता को घोषित तौर पर अपमानित करने की हिम्मत सत्ताधीश क्यों दिखाते हैं, इस पर कांग्रेस की कमेटी में चर्चा होनी आवश्यक है। राहुल गांधी का मजाक उड़ाने वाले कृषि मंत्री तोमर को भी देश का किसान गंभीरता से नहीं लेता, यह वस्तुस्थिति है। 

फिर भी सरकार पर टूट पड़ने में कांग्रेस कमजोर पड़ गई है, यह आक्षेप है ही। दो करोड़ किसानों के हस्ताक्षर पर तोमर ने सवाल खड़े किए। तोमर का कहना है कि कोई भी कांग्रेस का सदस्य किसानों के हस्ताक्षर लेने नहीं गया। इस प्रकार की हस्ताक्षर मुहिम भाजपा कई बार चला चुकी है। तब ये हस्ताक्षर लेने कौन गया था? ऐसा सवाल भी पूछा जा सकता है। 

तोमर दिल्ली की सीमा पर किसानों के आंदोलन को शांत नहीं कर पाए, ये बात जितनी सच है, उतनी ही ये बात भी सही है कि कांग्रेस सहित सारे विरोधी दल इस आंदोलन को रानीतिक धार नहीं दे पाए। कांग्रेस के नेतृत्व में एक ‘यूपीए’ नामक राजनीतिक संगठन है। उस ‘यूपीए’ की हालत एकाध ‘एनजीओ’ की तरह होती दिख रही है। ‘यूपीए’ के सहयोगी दलों द्वारा भी देशांतर्गत किसानों के असंतोष को गंभीरता से लिया हुआ नहीं दिखता। ‘यूपीए’ में कुछ दल होने चाहिए लेकिन वे कौन और क्या करते हैं? इसको लेकर भ्रम की स्थिति है। 

"अन्य सहयोगी पार्टियों की कुछ हलचल नहीं दिखती"
शरद पवार के नेतृत्ववाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को छोड़ दें तो ‘यूपीए’ की अन्य सहयोगी पार्टियों की कुछ हलचल नहीं दिखती। शरद पवार का एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है, राष्ट्रीय स्तर पर है ही और उनके वजनदार व्यक्तित्व तथा अनुभव का लाभ प्रधानमंत्री मोदी से लेकर दूसरी पार्टियां भी लेती रहती हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अकेले लड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी वहां जाकर कानून-व्यवस्था को बिगाड़ रही है। केंद्रीय सत्ता की जोर-जबरदस्ती पर ममता की पार्टी को तोड़ने का प्रयास करती है। ऐसे में देश के विरोधी दलों को एक होकर ममता के साथ खड़ा होने की आवश्यकता है। लेकिन इस दौरान ममता की केवल शरद पवार से ही सीधी चर्चा हुई दिखती है तथा पवार अब पश्चिम बंगाल जानेवाले हैं। यह काम कांग्रेस के नेतृत्व को करना आवश्यक है। 

"मोदी और अमित शाह जैसा यूपीए में कोई नहीं दिखता"
कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक पार्टी को गत एक साल से पूर्णकालिक अध्यक्ष भी नहीं है। सोनिया गांधी ‘यूपीए’ की अध्यक्ष हैं और कांग्रेस का कार्यकारी नेतृत्व कर रही हैं। उन्होंने अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई है। लेकिन उनके आसपास के पुराने नेता अदृश्य हो गए हैं। मोतीलाल वोरा और अहमद पटेल जैसे पुराने नेता अब नहीं रहे। ऐसे में कांग्रेस का नेतृत्व कौन करेगा? ‘यूपीए’ का भविष्य क्या है, इसको लेकर भ्रम बना हुआ है। फिलहाल, ‘एनडीए’ में कोई नहीं है। उसी प्रकार ‘यूपीए’ में भी कोई नहीं है, लेकिन भाजपा पूरी ताकत के साथ सत्ता में है और उनके पास नरेंद्र मोदी जैसा दमदार नेतृत्व तथा अमित शाह जैसा राजनीतिक व्यवस्थापक है। ऐसा ‘यूपीए’ में कोई नहीं दिखता। 

"राहुल गांधी जोरदार संघर्ष करते हैं, लेकिन कहीं तो कुछ कमी है"
लोकसभा में कांग्रेस के पास इतना संख्याबल नहीं है कि उन्हें विरोधी दल का नेता पद मिले। कल बिहार विधानसभा चुनाव हुए। उसमें भी कांग्रेस फिसल गई। इस सत्य को छुपाया नहीं जा सकता। तेजस्वी यादव नामक युवा ने जो मुकाबला किया वैसी जिद कांग्रेस नेतृत्व ने दिखाई होती तो शायद बिहार की तस्वीर कुछ और होती। राहुल गांधी व्यक्तिगत रूप से जोरदार संघर्ष करते रहते हैं। उनकी मेहनत बखान करने जैसी है लेकिन कहीं तो कुछ कमी जरूर है। 

तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, अकाली दल, मायावती की बसपा, अखिलेश यादव, आंध्र में जगन की वाईएसआर कांग्रेस, तेलंगाना में चंद्रशेखर राव, ओडिशा में नवीन पटनायक और कर्नाटक के कुमारस्वामी जैसे कई दल और नेता भाजपा के विरोध में हैं। लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में ‘यूपीए’ में वे शामिल नहीं हुए हैं। जब तक ये भाजपा विरोधी ‘यूपीए’ में शामिल नहीं होंगे, विरोधी दल का बाण सरकार को भेद नहीं पाएगा। प्रियंका गांधी की दिल्ली की सड़क पर गिरफ्तारी होती है। 

राहुल गांधी का मजाक उड़ाया जाता है। ममता बनर्जी को फंसाया जाता है और महाराष्ट्र में ठाकरे सरकार को काम नहीं करने दिया जाता। कमलनाथ की मध्य प्रदेश सरकार खुद प्रधानमंत्री मोदी ने ही गिराई है, यह राज भाजपा नेता ही खोलते हैं। ये सब लोकतंत्र का मारक है। इसका जिम्मेदार कौन है? मरी हुई अवस्था का विरोधी पक्ष! देश के लिए यह तस्वीर अच्छी नहीं है। कांग्रेस नेतृत्व ने इस पर विचार नहीं किया तो आनेवाला समय सबके लिए कठिन होगा, ऐसी खतरे की घंटी बजने लगी है। विरोधी दलों की हालत उजड़े हुए गांव की जमींदारी संभालनेवाले की तरह हो गई है। यह जमींदारी कोई गंभीरता से नहीं लेता इसलिए 30 दिनों से दिल्ली की सीमा पर किसान फैसले की प्रतीक्षा में बैठे हैं। उजड़े हुए गांव की तत्काल मरम्मत करनी ही होगी।

Share this article
click me!