1989 से 2014 तक अस्थिर सरकारों ने भारत की इकोनॉमी को कमजोर किया, मोदी के आने के बाद दुनिया हमारी तरफ देख रही

2014 में नरेंद्र मोदी (Narendra modi) 30 साल बाद पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार (Government) लेकर आए तो दुनिया (World) स्तब्ध रह गई। सिर्फ मोदी ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र ने दुनिया का विश्वास इस कदर हासिल किया कि भारत को सोने का लोकतंत्र (golden democracy)तक कहा गया। 

Asianet News Hindi | Published : Nov 30, 2021 8:30 AM IST / Updated: Nov 30 2021, 02:02 PM IST

1989 से लेकर 2014 के भारत (India) और उसके बाद के भारत में क्या बदलाव आया, यह बड़ा सवाल है। इसका जवाब मोदी सरकार (Modi Government) की योजनाओं और कामकाज के सात सालों को देखें तो सामने आता है। इंडियन एक्सप्रेस के संपादक एस गुरुमूर्ति ने अपने लेख में इसका जिक्र किया है। उन्होंने लिखा- भारत में हमेशा यह सवाल बना रहा है कि चीन (China) क्यों, भारत क्यों नहीं? चीन क्यों उड़ान भर रहा है। क्या भारत अभी विकसित हुआ? उन्होंने लिखा - 2019 में फोर्ब्स मैग्जीन (Forbs) ने इसके जवाब में कहा था कि चीन में बाधा मुक्त तंत्र है और भारत में दबाव वाला लोकतंत्र इसके कारण हैं। फोर्ब्स के मुताबिक 1980 के दशक में भारत और चीन एक समान थे। लेकिन 2018 तक चीन की प्रति व्यक्ति आय भारत की तुलना में 3.5 गुना तक बढ़ गई। फोर्ब्स ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए चीन ने यांग्त्जी नदी पर थ्री गोरजेस डैम और भारत के नर्मदा बांधों (Sardar sarovar Dam) के निर्माण की तुलना की। 

भारत में एक बांध बनने में चीन की तुलना में पांच गुना से ज्यादा वक्त लगा 
थ्री गोरजेस डैम से 13 शहर, 140 कस्बों और 1,350 गांवों में बाढ़ आ जाती थी। इससे 12 लाख लोग विस्थापित हो गए। इसके बाद भी चीन ने इस बांध के प्रोजेक्ट को एक दशक में पूरा कर लिया, जबकि नर्मदा बांध से किसी शहर में बाढ़ नहीं आई। सिर्फ 178 गांव ही प्रभावित हुए। चीन के बांध की तुलना में 10 फीसदी लोग ही विस्थापित हुए। लेकिन भारत में यह बांध बनने में 48 साल लग गए। जवाहर लाल नेहरू ने इसकी नींच रखी। विश्व बैंक 1985 में इसे निधि देने के लिए सहमत हुआ, लेकिन नर्मदा बचाओ आंदोलन (NBA) शुरू होने के बाद यह प्रोजेक्ट अटक गया। यह 2019 में पूरा हो सका। यानी, चीन की तुलना में भारत में एक बांध बनने में पांच गुना अधिक समय लगा।  

10 साल में 7 प्रधानमंत्री, भारत पर कैसे भरोसा करते पश्चिमी बाजार 
1989 से लेकर 2014 तक के 25 वर्षों में भारत में गठबंधन सरकारें रहीं। यह वही दौर था, जब 10 साल में 4 चुनाव हुए और 7 प्रधानमंत्री बने। इसने अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया। 1989 से 1999 के बीच ग्लोबलाइजेशन का दौर था। बाकी देशों के लिए पश्चिमी बाजार (Western market) खुल रहे थे, उस समय भारत में चार आम चुनाव हुए और 7 प्रधानमंत्रियों के साथ कई सरकारें रहीं। वीपी सिंह 11 महीने, चंद्रशेखर 4 महीने, नरसिम्हा राव 5 साल, अटल बिहारी वाजपेयी 13 दिन, देवगौड़ा 11 महीने, इंद्रजीत गुजरात 11 महीने और अटल बिहारी वाजपेयी दोबारा 13 महीने के लिए प्रधानमंत्री बने। ऐसे में पश्चिमी देश भारत की ओर क्यों देखते, जिसकी सरकारें ही महीनों तक ही टिक रही थीं, जबकि चीन सिर्फ एक व्यक्ति देंग शियाओपिंग के अधीन रहा। ऐसे में अमेरिका ने स्थिर चीन को लोकतंत्र बनाने की उम्मीद में 1993 में चीन के साथ सकारात्मक जुड़ाव शुरू किया।

भारत ने उम्मीद खो दी थी कि कभी मजबूत नेतृत्व मिलेगा 
1999 से 2014 के बीच चीजें सुधरीं जब गठबंधन सरकारों का पूर्णकालिक दौर शुरू हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी का अपने गंठबंधन पर बेहतरीन नियंत्रण था। उन्होंने साहपूर्ण कदम उठाते हुए पोखरण विस्फोट किया। हालांकि, मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर संजय बारू ने अपनी किताब में लिखा था कि मनमोहन सिंह सोनिया गांधी के महज एक प्रतिनिधि थे। असली पावर सोनिया गांधी के पास ही था। 1989 से 2014 के बीच भारत में 10 सरकारें रहीं। यह कितने दिनों तक सत्ता में रहेंगे, यह सवाल हमेशा बना रहा। इसके परिणामस्वरूप देश की एक पूरी पीढ़ी ने उम्मीद खो दी थी कि भारत में कभी इंदिरा गांधी जैसी मजबूत नेता के साथ पूर्ण बहुमत के साथ स्थिर सरकार होगी। यही सोच दुनिया को चीन के पीछे ले गई। 

आदर्श बदलाव... मोदी के आते ही चमका भारत, बने ग्लोबल लीडर
2014 में नरेंद्र मोदी 30 साल बाद पहली बार पूर्ण बहुमत वाली सरकार लेकर आए तो दुनिया स्तब्ध रह गई। सिर्फ मोदी ही नहीं, भारतीय लोकतंत्र ने दुनिया का विश्वास इस हद तक हासिल किया कि 2019 में, अमेरिकी मैग्जीन फॉरेन पॉलिसी ने यहां तक ​​कहा कि भारतीय लोकतंत्र दुनिया में लोकतंत्र की चांदी की परत, यहां तक ​​​​कि लोकतंत्र की सुनहरी परत (Indian democracy is the silver lining, even golden lining of democracies) है । मुरुमूर्ति लिखते हैं कि 2014 की तरह 1990 के दशक में भी भारत में सरकार बहुमत के साथ होती तो चीन पश्चिम की पसंद नहीं होता। एक समय भारत को कोई देश इसलिए नहीं चुनता था, कि उसकी सरकार कभी भी गिर सकती थी, लेकिन 2014 में यही बदल गया। मोदी एक वैश्विक नेता के रूप में उभरे। 

ग्लोबल पॉवर गेम में बनाई जगह 
यूएस बेस्ट मार्निंग कंसल्ट के जनवरी 2020 से अभी तक के एक सर्वे के मुताबिक मोदी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के 13 नेताओं में से शीर्ष पर हैं। हाल में हुई G7-plus, G20 बैठकें और COP26 सम्मेलन में भारत की प्रमुख भूमिका रही। दुनिया अब भारत की ओर रुख कर रही है,  जैसे वह 1990 के दशक में चीन की ओर रुख कर रही थी। यूबीएस एविडेंस लैब सीएफओ स्टडी, इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एंड इनोवेशन फंड रिसर्च, ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट और किना रिपोर्ट के मुताबिक अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश अब चीन से भारत की तरफ रुख कर रहे हैं। जापान-ऑस्ट्रेलिया और इंडिया के व्यापार मंत्रियों ने अप्रैल 2021 में चीन के सेमीकंडक्टर टेक्नोलॉजी बिजनेस से दूर होने के लिए एक वर्चुअल मीटिंग की। रणनीतिक पोखरण- 2  के जरिये भारत ने वैश्विक शक्ति के खेल के बारे में अपनी भी जगह बना ली। 

सात साल में विकास की योजनाओं से करोड़ों लोगों को जोड़ा 
यह पूर्ण बहुमत का ही जादू है कि मोदी ने ऐसे दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित किए, जिनकी भारत में पहले कभी कल्पना भी नहीं की गई थी। 2014 के बाद सात सालों में उन्होंने 43.81 करोड़ गरीबों के बैंक खाते खोले, 11.5 करोड़ पब्लिक टॉयलेट, 6 लाख से अधिक खुले में शौच मुक्त गांव, 2.33 लाख किमी लंबी ग्रामीण सड़कें, गरीबों के लिए 2.13 करोड़ घर बनाने के साथ ही सभी गांवों के 2.81 करोड़ घरों में बिजली कनेक्शन पहुंचाए। यही नहीं 8.7 करोड़ महिलाओं को फ्री LPG कनेक्शन, 1.69 गांवों तक ऑप्टिकल फाइबर बिछाना और 25.6 करोड़ लोगों को मेडिकल इंश्योरेंस मुहैया कराया। किसान सम्मान निधि, सॉइल हेल्थ कार्ड जैसी तमाम योजनाओं ने लोगों को मोदी से सीधे जोड़ा है। 2014 तक 64 साल में नेशनल हाईवे (NH)की लंबाई 91,287 किमी थी। मोदी के सात वर्षों में यह 46,338 किमी बढ़ गई। यानी इसमें  50% वृद्धि हुई।  

इंटीग्रेटेड एक्शन प्लान 
मोदी की सभी विकास योजनाएं इंटीग्रेटेड (एक दूसरे से जुड़ी) हैं। वह बिना आधार कार्ड मुहैया कराए, बिना गांवों तक ऑप्प्टिकल फाइबर पहुंचाए, बिना लाखों किमी सड़क बनाए, बिना डाकघर बैंक  बनाए दस करोड़ से अधिक बैंक खाते नहीं खोल सकते थे। इनके बिना वह 10 करोड़ से अधिक मेडिकल बीमा, फसल बीमा, जीवन बीमा, सॉइल हेल्थ कार्ड, शौचालय, रसोई गैस कनेक्शन या किसानों के बैंक खातों में दसियों करोड़ रुपए नहीं डाल सकते थे। यह सब एक दूसरे के बिना संभव नहीं था।  

नोटबंदी, जीएसटी से बढ़े टैक्सपेयर
मोदी ने अपनी विकास योजनाओं के लिए नोटबंदी (Demonetisation ), जीएसटी (GST), दिवालियापन कानून, सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण जैसे संशोधन भी किए। 
हालांकि, नोटबंदी के जरिये वे कालेधन के जमाखोरों को रंगे हाथ पकड़ने में नाकाम रहे। लेकिन, इसके जरिये अनौपचारिक और ब्लैक मार्केट रजिस्टर्ड व्यापार में बदले। नतीजे में भारत में 2016 तक 3.79 करोड़ टैक्सपेयर थे, जो 2018 में बढ़कर 6.84 करोड़ हो गए। इसमें 80 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यदि नोटबंदी नहीं होती तो जीएसटी कलेक्शन भी बुरी तरह विफल होता। इससे राज्यों की वित्त व्यवस्था को खतरा हो सकता था। एसबीआई की दो नई इकोरैप रीसर्च रिपोर्ट (1 नवंबर और 8 नवंबर) ने नोटबंदी के बारे में सच्चाई सामने ला दी है। इसमें कहा गया है कि नोब्ंदी के कारण जन धन बैंक खातों में 5.7 करोड़ की वृद्धि हुई। 2014 में प्रति 10 हजार 182 डिजिटल ट्रांजेक्शन थे जो 2020 में 135 गुना बढ़कर 13,615 हो गए। जन धन खातों में बचत बढ़कर 1.40 लाख करोड़ रुपए हो गई है। नोटबंदी, जीएसटी और डिजिटल लेनदेन ने अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 2014 में 54% से घटाकर 2020-21 में 15-20% कर दी है। जन धन खातों में वृद्धि दिखाती है है कि इसने शराब और तंबाकू की खपत, फिजूलखर्ची और अपराध दर को कम किया है!  

'कमजोर प्रधानमंत्री' होते तो काेविड की चुनौती से निपटना संभव नहीं था
मोदी को दूसरी बार पूर्ण बहुमत नहीं मिला होता तो कुछ भी संभव नहीं होता। भारत ने कोविड की चुनौती को कैसे संभाला, यह भी बड़ी बात है। मोदी सरकार के लिए चुनौती 2019 के चुनाव जीतने के कुछ महीने बाद शुरू हो गई, जब कोविड 19 (Covid 19) ने भारत को प्रभावित करना शुरू किया। मोदी को इसे रोकने के लिए जोखिम भरे, अपरंपरागत, अलोकप्रिय तरीकों का प्रयोग करना पड़ा, लेकिन असफल रहे। इसने लोगों को परेशान किया, अर्थव्यवस्था को चरमरा दिया, विपक्ष को हमलावर किया। भारत को गिराने का सुनहरा मौका देखकर चीन ने सरहदों पर खून बहाना शुरू कर दिया। लेकिन मोदी ने भारतीयों के लिए मेड इन इंडिया टीके (Made in india Vaccine) बनाने के अपने इंद्रधनुष मिशन (Mission Indradhanush)पर ध्यान केंद्रित किया। यह कितना महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहले विदेशी टीकों को भारत पहुंचने में 17 से 60 साल तक का समय लगता था। यदि भारत विदेशी निर्मित कोविड टीकों पर निर्भर होता, तो वह इन्हें खरीदने में ही दीवालिया हो सकता था और कोविड से राहत के बारे में कभी सोच भी नहीं सकता था। लाखों लोग मर चुके होते। बस 2014 के बाद के भारत में यही अंतर है। मोदी की जगह किसी अन्य कमजोर प्रधानमंत्री और समझौता करने वाले गठबंधन की कल्पना करें तो कोविड की तबाही और सीमा पर चीन की गोलीबारी के साथ भारत कहां होता? 1989-2014 के दौरान और उसके बाद के भारत में यही अंतर है।

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