इन मुस्लिम परिवारों के बगैर अधूरा है यहां का दशहरा, 200-250 सालों से चली आ रही परंपरा

ये दो तस्वीरें दशहरे पर हिंदू-मुस्लिम सौहार्द्र की मिसाल पेश करती हैं। पहली तस्वीर में झारखंड के हनीफ मियां हैं। विजयादशमी पर शोभायात्रा तब आगे बढ़ती है, जब ये मंदिर के सामने झंडा गाड़कर उसकी इबादत करते हैं। दूसरी तस्वीर यूपी के देवरिया की है। यह परिवार दशहरे पर जब तक गांववालों को नीलकंठ के दर्शन नहीं करा देता, तब तक परंपरा अूधरी मानी जाती है।

Asianet News Hindi | Published : Oct 26, 2020 6:49 AM IST / Updated: Oct 26 2020, 12:20 PM IST

गुमला/देवरिया. त्यौहार कोई भी हो, वो भाईचारे और साम्प्रदायिक सौहार्द्र (communal harmony) की कहानी पेश करता है। दशहरे से भी हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की परंपराएं (traditions) जुड़ी हैं। पहली तस्वीर झारखंड के गुमला जिले के अलबर्ट एक्का जारी प्रखंड के श्रीनगर में रहने वाले मोहम्मद हनीफ की है। विजयादशमी पर शोभायात्रा तब आगे बढ़ती है, जब ये मंदिर के सामने झंडा गाड़कर उसकी इबादत करते हैं। दूसरी तस्वीर यूपी के देवरिया की है। यह परिवार दशहरे पर जब तक गांववालों को नीलकंठ के दर्शन नहीं करा देता, तब तक परंपरा अूधरी मानी जाती है। पढ़िए दो कहानियां...

200 सालों से चली आ रही परंपरा...
बेशक इस साल कोरोना के चलते दशहरे का समारोह नहीं निकलेगा, लेकिन परंपरा फिर भी निभाई जाएगी। झारखंड के गुमला के श्रीनगर में 200 सालों से परंपरा चली आ रही है। जब मोहम्मद हनीफ मियां के परिजन दुर्गा मंदिर के सामने झंडा गाड़कर उसकी पूजा-अर्चना करते हैं, तब चल समारोह आगे बढ़ता है। हनीफ मियां मुस्लिम रीति-रिवाजों से इबादत करते हैं। वे बताते हैं कि 200 साल पहले बरवे स्टेट के नरेश राजा हरिनाथ साय ने यह परंपरा शुरू कराई थी। तब से उनका खानदान इसे निभा रहा है। अब हनीफ मियां जुलूस के आगे झंडा लेकर चलते हैं। उस समय यह इलाका बरवे स्टेट के नाम से जाना जाता था। इसे सरगुजा के महाराजा चामिंद्र साय को सौंपा गया था।


यहां 250 साल से चली आ रही यह परंपरा..
यह मामला यूपी के देवरिया जिले के रामनगर गांव से जुड़ा है। यहां नीलकंठ पक्षी के दर्शन किए बिना दशहरा पूरा नहीं होता। सबसे बड़ी बात नीलकंठ के दर्शन एक मुस्लिम परिवार कराता है। यह परंपरा 250 वर्षों से चली आ रही है। इस परंपरा को निभा रहे मिष्कार मियां बताते हैं कि वे दशहरे से 10 दिन पहले नीलकंठ पक्षी को खोज निकालते हैं। फिर दशहरे से एक दिन पहले गांव पहुंचते हैं। इस परंपरा के तहत पशु-पक्षियों के प्रति दयाभाव प्रदर्शित करना भी है।

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