
नई दिल्ली। भारतीय लोकतंत्र एक नए संवैधानिक मोड़ पर खड़ा है। हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 अब न्यायपालिका के हाथों में 'परमाणु मिसाइल' बन गया है, जो लोकतांत्रिक संतुलन को बिगाड़ सकता है। दरअसल, 12 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में यह निर्देश दिया कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के पास भेजे गए किसी भी विधेयक पर राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा। इस आदेश ने न केवल संविधान की व्याख्या को नए मायने दिए, बल्कि एक संवैधानिक बहस को भी जन्म दे दिया।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को ऐसी शक्ति देता है जिससे वह "पूर्ण न्याय" सुनिश्चित करने के लिए किसी भी आदेश, निर्णय या निर्देश को पारित कर सकता है। इसकी विशेषताएं:
राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल खड़ा किया। उन्होंने कहा: “अब हमारे पास ऐसे न्यायाधीश हैं जो कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम करेंगे, और खुद को 'सुपर संसद' मानेंगे – लेकिन इन पर कोई जवाबदेही नहीं होगी।” उन्होंने अनुच्छेद 142 को लोकतंत्र के लिए एक 24x7 'परमाणु मिसाइल' बताते हुए चिंता जताई कि इससे विधायिका और कार्यपालिका की शक्तियों का अतिक्रमण हो रहा है।
इस फैसले की जड़ें उस केस में हैं, जिसमें विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों – जैसे केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना और पंजाब – ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने में देरी को चुनौती दी थी। 'तमिलनाडु बनाम राज्यपाल' मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा: "राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा, ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया बाधित न हो।"
धनखड़ ने दो टूक कहा कि राष्ट्रपति का पद भारतीय संविधान की आत्मा है। "राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और पालन की शपथ लेते हैं। कोई भी संस्था, यहां तक कि न्यायपालिका भी, उन्हें निर्देश नहीं दे सकती कि वे किस समय में फैसला लें।"
यह मामला महज कानूनी नहीं बल्कि लोकतंत्र की आत्मा और संविधान की संरचना से जुड़ा है। सवाल उठता है कि क्या न्यायपालिका अनुच्छेद 142 के ज़रिए अपनी सीमाएं लांघ रही है, या फिर लोकतंत्र को मजबूत कर रही है?
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