
वाराणसी। घरों की शोभा बढ़ाने वाला कालीन आज केवल सजावटी वस्तु नहीं, बल्कि पूर्वांचल की अर्थव्यवस्था की मजबूत धुरी बन चुका है। उत्तर प्रदेश के भदोही, मिर्जापुर, खमरिया, जौनपुर सहित बिहार, बंगाल, राजस्थान और ग्वालियर में बड़े पैमाने पर कालीन उद्योग फल-फूल रहा है। यहां तैयार किए गए कालीन अमेरिका, यूरोप, जापान और मिडिल ईस्ट सहित कई देशों में निर्यात किए जाते हैं। वर्तमान में भारत का कालीन उद्योग करीब 17 हजार करोड़ रुपये का हो चुका है।
कालीन उद्योग से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से 20 लाख से अधिक लोग जुड़े हुए हैं, जिनमें बुनकर, कारीगर, डिज़ाइनर और व्यापारी शामिल हैं। यह उद्योग पूर्वांचल क्षेत्र में रोजगार का एक बड़ा साधन बनकर उभरा है।
कालीन का इतिहास अत्यंत प्राचीन बताया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार इसका आरंभ लगभग 300 ईसा पूर्व से माना जाता है। ठंडे देशों में ठंड से बचाव के लिए कालीन का अधिक उपयोग होता रहा है। समय के साथ यह एक लग्जरी उत्पाद के रूप में पहचान बना चुका है, हालांकि आधुनिक दौर में अब यह किफायती कीमतों और नए डिजाइनों में सभी वर्गों के लिए उपलब्ध है।
वाराणसी के चांदपुर इंडस्ट्रियल स्टेट स्थित खुशी एंटरप्राइजेज के कार्पेट एक्सपीरियंस सेंटर के संस्थापक हुसैन जाफ़र हुसैनी बताते हैं कि भारत आज विश्व का सबसे बड़ा कालीन उत्पादक देश है। यहां की समृद्ध कालीन विरासत को दुनियाभर में सराहा जाता है। उन्होंने कहा कि पहले कालीन को केवल लग्जरी उत्पाद माना जाता था, लेकिन अब यह आम लोगों की पहुंच में है।
कालीन निर्माण की प्रक्रिया बेहद श्रमसाध्य होती है। पहले धागों को रंगा जाता है, फिर वीवर (बुनकर) को नक्शा और सामग्री दी जाती है। बुनाई लूम पर होती है और कालीन की कीमत प्रति स्क्वायर इंच नॉट (गांठ) के आधार पर तय होती है। हुसैनी के अनुसार, यदि एक स्क्वायर इंच में 50 नॉट हैं तो बुनकर को एक निश्चित मजदूरी मिलती है, जबकि 200 नॉट वाले कालीन पर मजदूरी और मूल्य दोनों अधिक होते हैं। एक कालीन को तैयार होने में एक महीने से लेकर एक साल तक का समय लग सकता है।
भारत में कालीन कला की शुरुआत मुगल काल से मानी जाती है। मुगल शासक अपने साथ फारस और मध्य एशिया से कुशल कारीगर लाए थे। बाद में उन्हीं कारीगरों की पीढ़ियों ने भारत में इस कला को आगे बढ़ाया, जो आज भी जीवित परंपरा के रूप में जारी है।
हुसैनी बताते हैं कि भारतीय कारीगरों की सबसे बड़ी ताकत उनकी डिज़ाइन में लचीलापन है। ईरान जैसे देशों में पारंपरिक डिज़ाइन पर ही काम होता है, जबकि भारत में कारीगर आधुनिक, मल्टी-कलर और कस्टम डिज़ाइन बनाने में माहिर हैं। यही वजह है कि वैश्विक बाजार में भारत का कोई सशक्त प्रतिस्पर्धी नहीं है।
भारत में बने कालीनों का 50 प्रतिशत से अधिक निर्यात अमेरिका को होता है। इसके बाद यूरोप, जापान और मिडिल ईस्ट प्रमुख बाजार हैं। भारतीय कालीनों की मांग लगातार बढ़ रही है।
हुसैनी के अनुसार, मशीन मेड कालीन प्रतिस्पर्धा जरूर हैं, लेकिन इसके बावजूद पिछले छह वर्षों में भारत के कालीन निर्यात में लगातार बढ़ोतरी हुई है।जहां पहले निर्यात का आंकड़ा 10 हजार करोड़ रुपये था, वह बढ़कर अब 17 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। उद्योग अब अधिक सेंट्रलाइज और संगठित हुआ है।
अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ का असर जरूर पड़ा, क्योंकि वही भारत का सबसे बड़ा ग्राहक है। हालांकि हुसैनी का कहना है कि समय के साथ उद्योग और ग्राहक दोनों ने परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाल लिया है। अब टैरिफ को लेकर पहले जैसी चिंता नहीं रही। (खबर इनपुट - सुरेन्द्र गुप्ता, वाराणसी)
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