
उज्जैन. तिल चतुर्थी पर भगवान श्रीगणेश के निमित्त व्रत रखा जाता है और शाम को चंद्रमा के दर्शन के बाद ही भोजन करने की परंपरा है। इस बार ये व्रत 21 जनवरी, शुक्रवार को है। इस दिन भगवान श्रीगणेश की कृपा पाने के लिए कई ज्योतिषीय उपाय भी किए जाते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है और हर काम में सफलता मिलती है। भगवान श्रीगणेश की पूजा में मुद्राओं का विशेष महत्व होता है।
इन 7 मुद्राओं से की जाती है भगवान श्रीगणेश की पूजा
देवी देवताओं की पूजा में मुद्राओं का बड़ा महत्व होता है। विशेषकर यदि आप पंच देवताओं गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव और दुर्गा का पूजन कर रहे हैं तो मुद्राओं का प्रयोग करना ही चाहिए। इससे संबंधित देवी-देवताओं को शीघ्र प्रसन्न किया जा सकता है। आइए जानते हैं प्रथम पूज्य भगवान गणेश की पूजा में किन-किन मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है। गणेशार्चन में सात मुद्राओं का प्रयोग किया जाता है- ये मुद्राएं हैं दंत, पाश, अंकुश, विघ्न, मोदक, परशु तथा बीजपूर।
दंत मुद्रा: दोनों हाथों की मुठ्ठियां बंदकर उनकी मध्यमा अंगुलियों को निकालकर सीधा करें। इसे दंत मुद्रा कहते हैं।
पाश मुद्रा: दोनों हाथ की मुठ्ठियां बंदकर बायीं तर्जनी को दाहिनी तर्जनी पर लपेट लें। पुन: उन तर्जनियों पर अंगूठे से दबाव दें। इसके बाद दायी तर्जनी के अगले पर्व को थोड़ा अलग करें तो पाश मुद्रा बन जाती है।
अंकुश मुद्रा: दाहिने हाथ की मुठ्ठी बंदकर तर्जनी को बाहर निकालें। पुन: उसे अधोमुख करके कुछ वक्राकार कर लें तो अंकुश मुद्रा बन जाती है।
विघ्न मुद्रा: मुठ्ठी बंदकर तर्जनी तथा मध्यमाओं के बीच में अंगूठे को रखकर उसके अगले भाग को कुछ बाहर निकालें। उसके बाद मध्यमाओं को नीचे की ओर झुका दें तो विघ्न मुद्रा बन जाती है।
मोदक मुद्रा: दाहिने हाथ की अंगुलियों को मिलाकर गोलाकार बना लेने से मोदक मुद्रा बन जाती है।
परशु मुद्रा: दोनों हाथों को एक में मिलाकर उनकी अंगुलियों का समायोजन कर उन्हें तिरछा कर देने से परशु मुद्रा बन जाती है।
बीजपूर मुद्रा: दोनों हाथों को आपस में मिलाकर बिजौरा नीबू के सदृश दिखाने पर बीजपूर मुद्रा बन जाती है।
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