अयोध्या की इन गलियों में कभी गूंजती थी बेगम अख्तर की आवाज, पक्षी भी खामोशी से सुनते थे गाने, आज है यह हाल

 मल्लिका-ए-गजल को भले ही पदम् भूषण जैसे पुरस्कार दिए गए हों, लेकिन उनका पैतृक गांव ही उपेक्षा का शिकार है। यहां उनकी याद में एक स्मारक तक नहीं लगवाया गया है, जबकि उनके जीवन से जुड़ी कई स्थान हैं, जिसे विकसित कर उनकी याद काे बनाए रखा जा सकता है।

Ujjwal Singh | Published : Nov 24, 2019 11:22 AM IST / Updated: Nov 25 2019, 10:51 AM IST

अयोध्या ( उत्तर प्रदेश). मेरे हम-नफ़स मेरे हम-नवा मुझे दोस्त बन के दग़ा न दे, मैं हूं दर्द-ए-इश्क़ से जाँ-ब-लब मुझे ज़िंदगी की दुआ न दे , मेरे दाग़-ए-दिल से है रौशनी इसी रौशनी से है ज़िंदगी मुझे डर है ऐ मिरे चारा-गर ये चराग़ तू ही बुझा न दे ...। शकील बदायूनी की लिखी ये गजल जब भी संगीत प्रेमियों के कान में पड़ती है तो बरबस ही उन्हें मल्लिका-ए-गजल बेगम अख्तर का नाम याद आ जाता है। जी हां ये वही बेगम अख्तर हैं जिन्हे मरणोपरांत पद्मभूषण पुरस्कार से नवाजा गया और वे अयोध्या के भदरसा इलाके की रहने वाली थीं।

hindi.asianetnews.com की टीम ने बेगम अख्तर के जीवन से जुड़ी कुछ अनसुनी कहानियाें काे लाेगाें के  सामने लाने के लिए उनके पैतृक गांव में गई, जाे उपेक्षा का दंश झेल रही है और गांव के लाेग इन उजड़ी गलियाें काे आज भी अपने दिलाे-दिमाग में बैठाए हैं, क्याेंकि इन्हीं गलियाें से बेगम अख्तर की आवाज (गीत) गूंजती थी।  जिसे सुनने के लिए जहां संगीत प्रेमियाें के साथ-साथ पशु-पक्षी भी पेड़ाें की डालिओ पर बैठकर बड़ी ही खामाेशी से उनके गानाें काे सुनते नजर आते थे। कुछ इसी तरह कई अनसुनी कहानियां हम आज आपके साथ शेयर कर रहे हैं। 

बिब्बी के नाम से बचपन में पुकारी जाती थी बेगम अख्तर
पड़ोसी शबीहुल हसन व बेगम अख्तर अखिल भारतीय संगीत कला अकादमी के सदस्य ओम प्रकाश सिंह काे बेगम अख्तर की जिंदगी से जुड़ी कई अनसुनी कहानियां याद है। वह बताते हैं कि  बेगम अख्तर का जन्म 7 अक्टूबर, 1914 को फैजाबाद के भदरसा गांव में हुआ था।  बचपन में बेगम अख्तर का नाम बिब्बी था। जिन्हें परिवार के साथ-साथ गांव के लाेग भी बुलाते थे.

ऐसे बनी गजल की मल्लिका
उनकी मां मुश्तरी बाई एक तवायफ थीं। उनकी आवाज भी बेहद मधुर थी। कुछ बढ़े हाेने पर परिवार के लाेगाें ने बिब्बी के नाम बदलकर अख्तरी बाई रख दिया। बाद में उन्हें अख्तरी बाई फैजाबादी और बेगम अख्तर के नाम से पुकारा जाने लगा। उनके आवाज के दीवानाें ने बेगम अख्तर को गजल की मल्लिका कहने लगे आैर इसी से उनकी पहचान बन गई।

इसलिए चली गई थी शहर
बेगम अख्तर के पड़ोसी शबीहुल हसन बताते हैं कि बेगम अख्तर की मां मुश्तरी बाई अपनी बेटी को अपने जैसा नहीं बनते देखना चाहती थी। वह बेटी के भविष्य काे लेकर परेशान रहती थी।  उन्हें इस बात का यकीन था कि उनकी बेटी एक दिन बहुत आगे जाएगी, लेकिन गांव में न तो वह माहौल मिल पाता था और न ही संसाधन। इसी को देखते हुए उनकी मां उन्हें लेकर फैजाबाद शहर आ गई और यहीं किराए के मकान में रहने लगी।

इस पेड़ और कुंआ के नीचे करती थी रियाज 
शबीहुल हसन के मुताबिक बेगम अख्तर के घर के सामने आज भी नीम का पेड़ और उसके नीचे एक कुंआ है। यहीं बैठकर अख्तरी बाई( बेगम अख्तर) रियाज करती थी। जब वह गाती थीं तो उनके आसपास के संगीत प्रेमियाें की भीड़ एकत्र हाे जाती थी। महिलाएं घर का कामकाज छोड़कर संगीत सुनने आ जाती थीं। शबीहुल हसन के दावाें की मानें तो पशु-पक्षी भी वहां आसपास शांति से बैठ जाते थे, जिन्हें देखने पर ऐसा लगता था मानिए, अख्तरी बाई  का संगीत सुनने को ही वे इकट्ठा हुए हों। 

इमामबाड़े में रखा है मिंबर
ओम प्रकाश सिंह बताते हैं कि बेगम अख्तर की कई निशानियां खत्म हो गई। उनके संरक्षित करने पर कोई जोर नहीं दिया जा रहा है। हालांकि भदरसा स्थित इमामबाड़े में रखा एक मिंबर रखा है, जाे उनकी एक मात्र निशानी है। इसी मिंबर पर बैठ कर बेगम अख्तर मिसरे पढ़ा करती थी।

गांव से सरकार ने ताेड़ा नाता
गांव वालाें का कहना है कि मल्लिका-ए-गजल को भले ही पदम् भूषण जैसे पुरस्कार दिए गए हों, लेकिन उनका पैतृक गांव ही उपेक्षा का शिकार है। यहां उनकी याद में एक स्मारक तक नहीं लगवाया गया है, जबकि उनके जीवन से जुड़ी कई स्थान हैं, जिसे विकसित कर उनकी याद काे बनाए रखा जा सकता है।

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