बस नाम रहेगा अल्लाह का... जो गायब भी है..... हाजिर भी है..... भारत पाकिस्तान के बंटवारे के बाद सन 1979 में फैज अहमद फैज ने जब ने कविता लिखी होगी तो उन्होंने नहीं सोचा होगा कि हिंदुस्तान में उनकी इस नज्म पर इतना बवाल होगा।
वीडियो डेस्क। बस नाम रहेगा अल्लाह का... जो गायब भी है..... हाजिर भी है..... भारत पाकिस्तान के बंटवारे के बाद सन 1979 में फैज अहमद फैज ने जब ने कविता लिखी होगी तो उन्होंने नहीं सोचा होगा कि हिंदुस्तान में उनकी इस नज्म पर इतना बवाल होगा। इस नज्म पर जांच बैठाई जाएगी, नारे लगाए जाएंगे, सवाल उठाए जाएंगे, हर तरफ से विरोध के स्वर गूंजेगें। सवाल उठेंगे कि क्या फैज अहमद फैज की ये नज्म हिंदू विरोधी है?
आईआईटी कानुपर ने फैज अहमद फैज की इस कविता पर जांच बैठा दी है। फैज अहमद फैज ने ये कविता उस समय के पाकिस्तान के तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक के खिलाफ खिली थी। इस कविता के बोल ने जिया उल हक को हिला कर रख दिया था। 1984 में फैज का निधन हो गया, लेकिन उनकी इस कविता को अमर किया इकबाल बानो ने। 1935 में इकबाल बानो का दिल्ली में जन्म हुआ। पली बड़ी हरियाणा के रोहतक में, संगीत में बचपन से ही रुची थी। संगीत सीखा दिल्ली घराने के उस्ताद चाँद खाँ से। भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद 17 साल की उम्र में पाकिस्तान चली गईं। जहां उनका ससुराल था। शादी हुई थी एक ज़मींदार घराने में। वक्त बदला, मुल्क बदला, सियासत बदली लेकिन नहीं बदला तो वो था दिल्ली से लगाव। बगावती और जिद्दी स्वभाव की बानो ने इस कविता को हमेशा के लिए अमर कर दिया। उस दौर में पाकिस्तान में महिलाओं के साड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था, और इसके पीछे तर्क दिया था कि साड़ी पहनना इस्लाम विरोधी है। इकबाल बानो ने 1986 में लाहौर के अल हमरा आर्ट्स काउंसिल के ऑडिटोरियम में इस कविता को ऐसे गाया हर कोई इस कविता का कायल हो गया। लिखा भले ही फैज अहमद फैज हो लेकिन इकबाल बानो की आवाज ने इस कविता को हर किसी की जुबां पर ला दिया। कविता के बोल हैं, हम देखेंगे.... लाजिम है कि हम भी देखेंगे.... उस ऑडिटोरियम में सफेद रंग की साड़ी पहन कर इस कविता को इकबाल बानो ने गाया तो पूरा ऑडिटोरियम तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज ऊठा...
पाकिस्तान के उस दौर में फैज अहमद फैज को जेल में डाला गया। देश निकाला भी दिया गया। वे 8 साल तक लंदन में रहे। फिर वापस पाकिस्तान लौटे। लेकिन उन्होंने कभी भी लिखना बंद नहीं किया। वे जेल से भी लेखते रहे। जिसके बाद जेल में खिलने पर रोक लगा दी।
लेकिन इन सब के बीच सवाल ये उठ रहा है कि आखिर इतने सालों बाद फैज की उस कविता पर जो उस वक्त के मौजूदा हालत पर फैज के नजरिए से लिखी गई थी। उस पर बवाल क्यों उठ रहा है? सवाल ये भी है कि क्या आने वाला वक्त रहीम और रसखान के दोहे और उनकी लिखी कविताओं को भी नकार देगा... जिसमें ईश्वर का साक्षात रूप दर्शाया गया है।
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