म्यांमार में नन बनीं ये बच्चियां, कभी इनका सपना था इंजीनियर फुटबॉलर बनना

म्यांमार में कम उम्र में नन बनीं बच्चियों (चाइल्ड नन) में से किसी का सपना इंजीनियर बनने का है तो कोई फुटबॉल खेलना चाहती है लेकिन फिलहाल उन्हें ये सपने भी देर तक देखने की इजाजत नहीं है क्योंकि उन्हें सुबह की पहली किरण के साथ ही अपनी मासूम आंखें खोलनी होती हैं और हकीकत उनके सामने खड़ी होती है
 

यंगून: म्यांमार में कम उम्र में नन बनीं बच्चियों (चाइल्ड नन) में से किसी का सपना इंजीनियर बनने का है तो कोई फुटबॉल खेलना चाहती है लेकिन फिलहाल उन्हें ये सपने भी देर तक देखने की इजाजत नहीं है क्योंकि उन्हें सुबह की पहली किरण के साथ ही अपनी मासूम आंखें खोलनी होती हैं और हकीकत उनके सामने खड़ी होती है।

यंगून की सड़कों पर उतर कर दान मांगने से पहले सुबह की प्रार्थना के लिए उठने वाली ये लड़कियां संघर्ष से मुक्ति चाहती हैं। म्यांमार में चाइल्ड ननों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। कतरे हुए बाल और गुलाबी रंग के कपड़े पहनीं मिंगलार थाइकी मठ की लड़कियां रोजाना लकड़ी के फर्श पर पैर मोड़कर बैठ जाती हैं और आंखे मलते,जम्हाई लेते हुए प्रार्थना शुरू करती हैं।

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यंगून के संसाधन रहित उपनगर में अभी अंधेरा छंटा भी नहीं होता जब इन बच्चियों के बौद्ध मंत्रोच्चार सड़क पर मौजूद कुत्तों की गुर्रहाट और उनके रोने की आवाज के साथ प्रतियोगिता सी करती दिखती हैं। इस भिक्षुणी मठ की सभी 66 लड़कियां पलाउंग जातीय समूह से हैं और सबका जन्म पूर्वी शान राज्य में हुआ है जो स्थानीय बागी समूहों और सेना के बीच संघर्ष से ग्रस्त है।

धामा थेइंगी (18) ने कहा, ''वहां बहुत ज्यादा लड़ाई होती थी'' और इसी कारण से उसके माता-पिता ने नौ साल पहले उसे घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर भेज दिया था। उसने कहा, ''वहां रहकर पढ़ाई कर पाना आसान नहीं था और स्कूल बहुत दूर थे।''

संघर्ष से ग्रस्त हैं सीमाई क्षेत्र 

बौद्धों की बहुलता वाले देश के सीमाई क्षेत्र स्वतंत्रता के बाद से ही संघर्ष से ग्रस्त हैं जहां जातीय समूह राज्य पर स्वायत्तता और प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिकार जताने के लिए जंग करते रहते हैं। यहां की नेता आंग सान सू ची ने शांति लाने की प्रतिबद्धता जताई थी लेकिन संघर्ष अब भी जारी हैं।

धार्मिक मामलों एवं संस्कृति मंत्रालय के यंगून निदेशक सेन माव ने कहा कि करीब 18,000 चाइल्ड नन और नौसिखिए संन्यासी वाणिज्यिक राजधानी में मठों में चल रहे स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। मठों में रहना लड़कों की तुलना में लड़कियों के लिए ज्यादा मुश्किल है। लड़कियों को कम सम्मान दिया जाता है और उन्हें दान भी कम मिलता है क्योंकि माना जाता है कि मठों में रहना उन लड़कियों के लिए आखिरी विकल्प होता है जिन्हें प्रेमी या पति नहीं मिल पाता।

(यह खबर समाचार एजेंसी भाषा की है, एशियानेट हिंदी टीम ने सिर्फ हेडलाइन में बदलाव किया है।)

(फाइल फोटो)

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