लॉकडाउन में नौकरी जाने के बाद मालूम चला कि 'अरे...ये तो लाखों का आदमी है'
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करण और अमृता रोज सुबह फरीदाबाद से तालकटोरा स्टेडियम आते हैं। इन्होंने एक पोस्टर बनवा रखा है। साइड में गाड़ी खड़ी करके पोस्टर कार पर टांगते हैं और गाड़ी की डिग्गी में अपना रेस्त्रा ओपन कर लेते हैं। करण कहते हैं कि नौकरी जाने के बाद बेहद तनाव में था। लेकिन अब सब ठीक हो गया। वे कहते हैं कि अब किसी की नौकरी नहीं करना। संभव हुआ, तो आगे चलकर अपना बड़ा-सा रेस्त्रां खोलेंगे।
करण जिस सांसद की गाड़ी चलाते थे, उन्होंने सरकारी बंगले के सर्वेंट क्वार्टर में इनके रहने का इंतजाम किया था। चूंकि यह जॉब प्राइवेट थी, इसलिए लॉकडाउन में उन्हें निकाल दिया गया। इस बीच उन्हें अपना सामान किसी की मदद से एक गैरेज में रखना पड़ा और रात यहां-वहां गुजारनी पड़ीं। करीब दो महीने इसी कार में सोए। कभी गुरुद्वारों में लंगर खाया, तो कभी किसी से मदद ली।
करण बताते हैं कि शुरुआत में उन्होंने दूसरी नौकरी पाने खूब हाथ-पैर मारे, लेकिन कहीं बात नहीं बनी। फिर घर-गृहस्थी का सामान बेचकर यह काम शुरू किया। पहले दिन अमृता ने तीन किलो चावल, आधा किलो राजमा और आधा किलो छोले बनाया था। रास्ते में कई जगह रुक-रुककर खाना बेचने की कोशिश की, लेकिन असफल रहे। बाद में सारा खाना भिखारियों को खिला दिया।
लेकिन धीरे-धीरे लोग आने लगे। उन्हें अमृता के बनाए राजमा-चावल और छोले अच्छे लगे। आज अमृता रोज 8 किलो चावल, ढाई किलो राजमा, 2 किलो छोले, 3 किलो कढ़ी और 5 किलो रायता बनाकर बेचती हैं। इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि ये सुबह 11 बजे गाड़ी लेकर दुकान खोलते हैं और दोपहर 2 बजे तक सारा खाना खत्म हो जाता है।
आज इनकी दुकान पर रोज 100 लोग आते हैं। ये हाफ प्लेट 30 रुपए, जबकि फुल 50 रुपए में बेचते हैं। इस तरह महीने में ये लाख रुपए तक का सामान बेच देते हैं। इसमें से 60-70 प्रतिशत तक इनका मुनाफ होता है। अमृता को इसके लिए तड़के 3 बजे उठना पड़ता है।