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कभी टूटी हॉकी से खेलने को मजबूर था ये खिलाड़ी, फिर भारत के लिए खेले 4 वर्ल्डकप, ओलंपिक और चैंपियंस ट्रॉफी
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इंडियन स्पोर्ट्स में कई खिलाड़ी ऐसे है, जिनके खेल के चलते वह फैंस के बीच हमेशा चर्चा में रहते हैं। उन खिलाड़ियों की कहानी हमारे दिल को और ज्यादा छू जाती है, जिन्होंने मुश्किलों से आगे बढ़कर देश का नाम रोशन किया हो, उन्हीं में से एक है भारतीय हॉकी टीम के खिलाड़ी और कप्तान रहे धनराज पिल्ले। जिन्होंने जमीन से उठकर आसमान का सितारा बनने तक का सफर तय किया।
धनराज पिल्ले का जन्म पुणे के पास खड़की गांव में 16 जुलाई 1968 को हुआ था। वो बहुत ही गरीब परिवार से ताल्लुख रखते थे। उनका बचपन काफी आर्थिक संघर्षों के बीच गुजरा। हॉकी खेलने के लिए इन्हें अपने साथियों से उधार पर हॉकी स्टिक मांगनी पड़ती थी, और वो भी उन्हें तब मिलती थी जब उनके साथी खेल चुके होते थे।
वह बताते है कि, उनके पिता बतौर ग्राउंड मैन काम करते थे। पैसों की कमी के कारण परिवार में सुख-सुविधाओं की कमी थी। अपने जीवन की पहली हॉकी स्टिक तब मिली जब इनके बड़े भाई का भारतीय कैंप के लिए सिलेक्शन हुआ। तब इनके भाई ने अपनी पुरानी हॉकी स्टिक इन्हें दी। वह खुद टूटी हुई हॉकी से खेला करते थे और ऐसे करने की प्रेरणा उन्हें उनकी मां से मिलती थी। उनकी मां हमेशा अपने पांचों बेटों को हॉकी खेलने के लिए प्रोत्साहित किया करती थीं।
धनराज पिल्ले ने 1985 में मात्र 16 साल की उम्र में जूनियर नेशनल हॉकी टीम में मणिपुर की ओर से खेलना शुरू किया। इसके बाद 1986 में इनका सिलेक्शन सीनियर हॉकी टीम में हो गया। धनराज ने साल 1989 में इंटरनेशमल हॉकी में नई दिल्ली में ऑलवेन एशिया कप खेला था।
धनराज ने भारत के लिए 1989 से अगस्त 2004 के तक हॉकी खेली। साल 1992, 1996, 2000 और 2004 के ओलंपिक में भी वो शामिल हुए थे। इसके अलावा 1995, 1996, 2002 और 2003 में हुई चैंपियंस ट्रॉफी का भी वो हिस्सा रहे। साल 1990, 1994, 1998, और 2002 में हुए एशियन गेम्स में भी धनराज पिल्लै खेले।
वह हॉकी के सबसे सफल कप्तानों में से भी एक रहे हैं। धनराज पिल्ले की कप्तानी में भारत ने 1998 में और 2003 में एशियन गेम्स और एशिया कप जीता था। वह बैंकाक एशियन गेम्स में सबसे ज्यादा गोल करने वाले खिलाड़ी भी रहे थे। उन्होंने अपने करियर में हॉकी के जादूगर ध्यानचंद के साथ कई मैच खेले।
लोग उनको तुनुकमिजाज भी समझे थे, क्योंकि हॉकी मैनेजमेंट के साथ इनका छत्तीस का आंकड़ा रहता था। इसी के कारण उन्हें बैंकॉक में अच्छा परफॉर्म करने के बाद इन्हें और इनके छह साथियों टीम से बाहर कर दिया था। मैनेजमेंट का कहना था कि इन खिलाड़ियों को आराम की जरूरत है।
धनराज 4 बार ओलंपिक जाने के बाद भी एक भी मेडल नहीं जीत पाए थे और इस बात से वह बहुत दुखी थे। ये दुख उन्होंने अपनी ऊपर लिखी गई किताब में भी जाहिर किया था। जिसका टाइटल ही 'फोरगिव मी अम्मा' है। ये बायोग्राफी पत्रकार संदीप मिश्रा ने लिखी है।