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क्या वाकई सोने का बना होता है ओलंपिक का गोल्ड मेडल, जानें क्या है सच्चाई, कभी पहनाई जाती थी फूलों की माला

स्पोर्ट्स डेस्क : जैसे-जैसे टोक्यो ओलंपिक (Olympic Games 2020) की तारीख नजदीक आती जा रही है, वैसे-वैसे भारतीय एथलीटों और फैंस का एक्साइटमेंट बढ़ता जा रहा है। खेलों का ये महासंग्राम 23 जुलाई से शुरू हो रहा है और 8 अगस्त को इसका समापन होगा। भारत का नाम पूरी दुनिया में रोशन करने के लिए 126 एथलिटों का दल तैयार है। हर खिलाड़ी का एक ही सपना होगा देश के लिए गोल्ड जीतकर लाने का। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है ओलंपिक में मिलने वाले गोल्ड मेडल क्या वाकई सोने के होते है ? अगर नहीं तो चलिए आज हम आपको बताते हैं, इन मेडल्स का इतिहास, कि कैसे फूलों की माला से लेकर खिलाड़ियों को गोल्ड मेडल पहनाने का सफर तय हुआ...

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Asianet News Hindi
Published : Jul 16 2021, 08:56 AM IST
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टोक्यो ओलंपिक का मेडल
इस बार टोक्यो ओलंपिक 2020 में खिलाड़ियों को मेडल नहीं पहनाया जाएगा। कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए टोक्यो ओलंपिक में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को खुद ही अपने गले में मेडल डालने होंगे। इन मेडल की खासियत की बात की जाए तो, ये मेडल्स रीसाइकल्ड इलेक्ट्रिक सामानों (Recycled Electrical Equipment) से बने हैं। इन मेडल्स का व्यास 8.5 सेंटीमीटर होगा और इस पर यूनान की जीत की देवी ‘नाइकी’ (Nike) की तस्वीर बनी होगी।

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पुराने फोन से बना मेडल
इन मेडल को जापान की जनता के दान में दिए गए 79 हजार टन से ज्यादा इस्तेमाल किए गए मोबाइल फोन और अन्य छोटे इलेक्ट्रिक उपकरणों से निकाला गया है। ये मेडल कंचे जैसे दिखने वाले है। 

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पहले पहनाई जाती थी फूलों की माला
जब ओलंपिक खेलों की शुरुआत हुई थी, उस जमाने में विनिंग प्लेयर्स को जैतून के फूलों (Olive Flower) का हार दिया जाता था। इसे यूनान में पवित्र माना जाता था। 

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1896 से दिया जाने लगा मेडल
1896 में एथेंस के पुनर्जन्म के साथ पुरानी रीतियों की जगह नई रीतियों ने ली और ओलंपिक में मेडल देने की परंपरा शुरू हुई। हालांकि उस समय विजेताओं को सिल्वर, जबकि उपविजेता को तांबे या कांसे का पदक दिया जाता था।

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1904 से मिलने लगा गोल्ड मेडल
1904 के सेंट लुईस में पहली बार गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल का इस्तेमाल किया गया। ये मेडल ग्रीस की पैराणिक कथाओं के 3 युगों को दिखाते थे, जिसमें स्वर्णिम युग- जब इंसान देवताओं के साथ रहता था, रजत युग- जहां जवानी सौ साल की होती थी और कांस्य युग या नायकों का युग।

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पूरे सोने का नहीं होता मेडल
1912 में आखिरी बार पूरी तरह सोने का मेडल खिलाड़ियों को दिया गया था। लेकिन अब मेडल पूरा सोने से नहीं बनता है। इसमें बस सोने का पानी चढ़ाया जाता है। इन मेडल में कम से कम 6 ग्राम सोना होता है। बाकि अन्य धातु होती है।

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चीन ने बनाया जेड का मेडल
चीन ने बीजिंग ओलंपिक 2008 (Beijing Olympics 2008) में किसी धातु का नहीं बल्कि जेड से बना मेडल पहनाया था। चीन की पारंपरिक संस्कृति में सम्मान और सदाचार के प्रतीक इस माणिक को हर मेडल के पिछली तरफ लगाया गया था।

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हमेशा गोल नहीं था मेडल का आकार
ओलंपिक मेडल का साइज भी कई बार चेंज किया गया। 1923 में ओलंपिक खेलों के पदक को डिजाइन करने के लिए शिल्पकारों की प्रतियोगिता हुई। इटली के कलाकार ज्युसेपी केसियोली के डिजाइन को 1928 में विजेता चुना गया। फिर इस तरह के डिजाइन में मेडल दिया जाने लगा। जिसमें सामने वाला हिस्सा उभरा हुआ था और नाइकी ने अपने बाएं हाथ में ताड़ और दाएं हाथ में विजेता के लिए मुकुट पकड़ा हुआ था।

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पिन से लगाया जाता था मेडल
एक समय था, जब मेडल को विजेताओं की छाती पर पदक पिन से लगाया जाता था। लेकिन रोम ओलंपिक 1960 में पदक का डिजाइन नैकलेस की तरह बनाया गया और चेन की सहायता से इन्हें खिलाड़ियों को पहनाया गया। इसके चार साल बाद इस चेन की जगह रंग-बिरंगे रिबन ने ली।

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यूज प्लास्टिक से बनाए जाने लगे रिबन
2016 में रियो ओलंपिक के दौरान इन मेडल को बनाने में बड़ा बदलाव किया गया। पर्यावरण के प्रति बढ़ती जागरुकता को देखते हुए मेडल्स में ना सिर्फ 30 फीसदी रिसाइक्ल्ड चीजों का इस्तेमाल हुआ बल्कि उससे जुड़े रिबन में भी 50 फीसदी रिसाइकल्ड प्लास्टिक बोतलों का इस्तेमाल किया गया। इसी को देखते हुए जापान ने भी ऐसा करने का फैसला किया है।

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