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आखिर क्यों भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई हिंदी, इस कारण अपने ही देश में हुई सौतेलेपन का शिकार
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हिंदी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। पूरे देश में हिंदी के प्रति इस दिन सम्मान प्रकट करने के लिए आज के दिन कई कार्यक्रम होते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं भारत में केवल 43.63 प्रतिशत लोग ही हिंदी बोलते हैं।
हिंदी दुनिया में चौथी ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्यादा लोग बोलते हैं। दुनिया में 80 करोड़ ऐसे लोग हैं जो हिंदी को समझते और बोलते हैं।
भारत में हिंदी आजतक राष्ट्रभाषा क्यों नहीं बन पाई? क्यों हिंदी अपने ही देश में सौतेलेपन का शिकार हुई? आइए जानते हैं।
14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को हमारी राजभाषा बनाया था। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए महात्मा गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू तक ने मुहिम चलाई, लेकिन वह सफल नहीं हो पाई।
उस समय कई हिंदी विरोधी गुट इसका विरोध कर रहे थे और अंग्रेजी को ही राज्य की भाषा बनाए रखने के पक्ष में थे। 1949 में भारत की संवैधानिक समिति ने मुंशी-आयंगर समझौता किया। इसके बाद जिस भाषा को राजभाषा के तौर पर स्वीकृति मिली वह हिंदी (देवनागरी लिपि में) थी।
1965 में जब हिंदी को सभी जगहों पर आवश्यक बना दिया गया तो तमिलनाडु में हिंसक आंदोलन हुए। उनका कहना था कि यहां के लोग हिंदी नहीं जानते है इसलिए उसे राष्ट्रभाषा नहीं बनाया जा सकता।
आज भी दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों में हिंदी कम बोली जाती हैं। भारत के 20 राज्यों में हिंदी बोलने वाले लोग बहुत कम हैं। बाकी जिन राज्यों को हम हिंदी भाषी मानते हैं उनमें भी जनजातीय और क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाले लोग ज्यादा है।
भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है क्योंकि भारत में ढेरों भाषा बोली जाती है और सरकार ने देश की एकता और अखंडता को ध्यान रखते हुए हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बल्कि राजभाषा बनाया। अन्य 21 भाषाएं को सरकारी कामकाज में उपयोग करने की अनुमति दी गई।