सार

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कई ऐसे नाम थे, जिन्होंने भारतीय जनमानस में आत्मविश्वास का संचार किया। इन्हीं में एक थे अबनिंद्रनाथ टैगोर, जो कि महान रबिन्द्रनाथ टैगोर के परिवार से ताल्लुक रखते थे।
 

नई दिल्ली. भारतीय राष्ट्रवाद की ताकत इसकी विविधता और बहुलतावाद में है। अंग्रेजी उपनिशवाद के खिलाफ भारतीय प्रतिरोध के लिए नई चेतना का संचार करने वालों में रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे अबनिंद्रनाथ टैगोर की बड़ी भूमिका है। अबनिंद्रनाथ यानी अवनी ठाकुर (1871-1951) ने न केवल भारतीय राजनीति में जागृति पैदा कि बल्कि उन्होंने साहित्य व कला के क्षेत्र में भी भारतीय मेधा का परिचय दुनिया से कराया। इनके इस प्रयास से देश में नई राष्ट्रीय चेतना पैदा हुई, जो अंग्रेजों के खिलाफ प्रतिरोध को मजबूत करने का कारण बनी। 

टैगोर परिवार से था ताल्लुक
राजनीति, शिक्षा, साहित्य और कला में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले प्रसिद्ध टैगोर परिवार में ही अबनिंद्रनाथ का जन्म हुआ। वे महान साहित्यकार रविंद्रनाथ टैगोर के भतीजे थे। वे कला के क्षेत्र में  भारतीय मूल्यों को शामिल करने वालों में एक थे। वे प्रसिद्ध बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के संस्थापक रहे और यूरोपीय कला शैली के प्रभुत्व को बदल रख दिया। यूरोपीय कला उपनिवेशवाद के आगमन के बाद से भी भारतीय कला पर हावी हो गई थी। इसे बदलने का काम अबनिंद्रनाथ टैगोर ने किया था. अवनी ठाकुर ने मुगल और राजपूत लघु कला जैसी भारत की महान कला परंपराओं को पुनर्जीवित किया। उन्होंने भारतीय महाकाव्यों और अजंता गुफा कला को फिर से परिभाषित किया। 

कौन थे अबनिंद्रनाथ ठाकुर
अबनिंद्रनाथ टैगोर यानी अवनी ठाकुर का जन्म 1871 में जोराशंको में टैगोर के पैतृक गांव में हुआ था। उन्होंने कलकत्ता आर्ट्स स्कूल में यूरोपीय शिक्षकों के अधीन कला सीखी। लेकिन मुगल लघुचित्रों में आने के बाद उन्होंने उस शैली में चित्र बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने रवींद्रनाथ टैगोर के लेखन का चित्रण किया। ब्रिटिश कला शिक्षक ईबी हवेल के सरकारी कला विद्यालय के प्रधानाचार्य बने तब अवनी की भारतीय परंपरा कला को बल मिलने लगा। हवेल खुद भारतीय कला के बड़े प्रशंसक थे। उन्होंने इंडियन सोसायटी आफ ओरिएंटल आर्ट का गठन किया, जिसे बाद में द बंगाल स्कूल आफ आर्ट के नाम से जाना जाने लगा। 

एशियाई कला को भी बढ़ाया
जानकारी के अनुसार नंदलाल बोस और जैमिनी रॉय जैसे महान कलाकार उनके अनुयायी थे। उन्होंने जापानी और चीनी कलाओं की प्रदर्शनों को मिलाकर एक एशियाई कलात्मक परंपरा खोजने का कार्य किया। कहा जाता है कि स्कूल में भी वे भौतिकवादी पश्चिमी कला के खिलाफ होते थे। वे हमेश आध्यात्मिकता पर आधारित एक भारतीय परंपरा का दावा मजबूत करते उसका महिमामंडन करते थे। हालांकि बंगाल स्कूल के आलोचकों का कहना था कि उन्होंने भारतीय होने के बावजूद उन्होंने पश्चिम की एक साधारण अवधारणा को जन्म दिया। जिसमें पश्चिम के लोग भारत के बारे में एक सामान्य विचार रखते थे। 

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