सार
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश के कोने-कोने से क्रांतिकारियों ने आजादी की लड़ाई और शहीद हुए। इन्हीं में एक थे वक्कम अब्दुल खादर जिन्हें केरल के भगत सिंह के नाम से भी जाना जाता है। महज 26 साल की उम्र में शहीद होने वाले वक्कम अंग्रेजों से सीधे मोर्चा लिया था।
नई दिल्ली. भारत की आजादी के लिए अनगिनत युवाओं ने अपने प्राण न्यौछावर किए हैं। केरल के रहने वाले वक्कम अब्दुल खादर भी ऐसे ही क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश हूकूमत को सीधी चुनौती दी थी। महज 26 साल की उम्र में देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले वक्कम अब्दुल खादर को लोग आज भी श्रद्धा से याद करते हैं।
शहीद होने से पहले का खत
वक्कम अब्दुल खादर ने शहीद होने से पहले जो पत्र लिखा था, वह कुछ इस तरह था। मेरे प्यारे पिता, मेरी दयालु मां, मेरे प्यारे भाइयों और बहनों, मैं आप सब से हमेशा के लिए विदा ले रहा हूं। मृत्यु कल सुबह 6 बजे से पहले मेरी मृत्यु हो जाएगी। जब आपको प्रत्यक्षदर्शियों से पता चलेगा कि मैं कितने साहस और खुशी से फांसी के फंदे पर चढ़ा तो आपको प्रसन्नता होगी। आपको अवश्य ही गर्व होगा..। ये क्रान्तिकारी के अंतिम पत्र की पंक्तियां हैं, जो उन्होंने फांसी पर लटकाए जाने से कुछ घंटे पहले परिवार को लिखा था। ये 26 वर्षीय शहीद वक्कम मोहम्मद अब्दुल खादर थे जिन्हें वक्कम खादर के नाम से भी जाना जाता है। क्रांतिकारी को उनकी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सुभाष चंद्र बोस की भारतीय राष्ट्रीय सेना में काम करने की वजह से मार दिया गया था। इस बहादुर नौजवान को केरल के भगत सिंह के नाम से भी जाना जाता है।
कौन थे वक्कम अब्दुल खादर
मोहम्मद अब्दुल खादर का जन्म 1917 में केरल के तिरुवनंतपुरम के पास वक्कम गांव में एक साधारण परिवार में हुआ था। संगीत और फुटबॉल में गहरी रुचि रखने वाले खादर स्वतंत्रता आंदोलन से भी गहराई से जुड़ गए थे। वे दीवान सर सीपी रामास्वामी अय्यर के निरंकुश शासन के खिलाफ छात्र आंदोलन के जनक थे। जब गांधीजी केरल की यात्रा पर थे, तो खादर उनके डिब्बे में घुस गए और उनका हाथ चूम लिया था। मात्र 21 साल की उम्र में खादर मलेशिया चले गए और वहां के लोक निर्माण विभाग में शामिल हो गए। लेकिन जल्द ही वे भारत की स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे मलेशिया में भारतीयों के संगठन इंडिया इंडिपेंडेंस लीग के संपर्क में आ गए। बाद में वे लीग में अन्य लोगों के साथ भारतीय राष्ट्रीय सेना में शामिल हो गए। खादर पनांग मलेशिया में आईएनए द्वारा स्थापित भारतीय स्वराज संस्थान में सैन्य प्रशिक्षण दिए गए 50 कैडेटों के पहले बैच में शामिल थे।
ब्रिटिशों पर किए हमले
18 सितंबर 1942 को खादर को बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य के लिए चुना गया था। वह ब्रिटिश प्रतिष्ठानों पर सशस्त्र हमला करने के लिए भारत भेजे जाने के लिए चुने गए बीस सदस्यीय दस्ते में शामिल हुए। दस्ते को दो समूहों में विभाजित किया गया था। एक दल पानी के जहाज से तो दूसरा दल सड़क मार्ग से भारत पहुंचने वाला था। खादर पनडुब्बी दस्ते में थे जो 9 दिन समुद्री यात्रा के बाद भारतीय तट पर पहुंचा। खादर और उसका समूह केरल के मलप्पुरम के थानूर में उतरा जबकि दूसरा समूह गुजरात तट से दूर द्वारका पहुंचा था। खादर और अन्य को मालाबार विशेष पुलिस ने पकड़ लिया और ब्रिटिश अधिकारियों को सौंप दिया। वे सभी चेन्नई के फोर्ट सेंट जॉर्ज जेल में कैद किए गए। जहां उन्हें क्रूर यातनाओं का शिकार होना पड़ा। पिनांग 20 के नाम से जाने जाने वाले सभी बीस सैनिकों को गिरफ्तार किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। उनमें से पांच को मौत की सजा हुई जबकि अन्य को विभिन्न जेलों में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। मौत की सजा पाने वालों में केरल के खादर और उनके दो हमवतन अनंत नायर और बोनिफेस परेरा, बंगाल के सत्येंद्र चंद्र बर्धन और पंजाब के फौजा सिंह थे। लेकिन एक अपील पर बाद में परेरा को फांसी से बचा लिया गया। खादर और उसके दोस्तों को 10 सितंबर 1943 को मद्रास सेंट्रल जेल में फांसी दी गई थी।
फांसी से पहले लिखा खत
फांसी से कुछ दिन पहले ही अब्दुल खादर ने बोनिफेस को पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने लिखा कि मेरे प्यारे बोनी, यह मेरे अंतिम शब्द हैं क्योंकि मैं अपनी अंतिम यात्रा पर निकल चुका हूं। हमारी मृत्यु कई अन्य लोगों के जन्म का मार्ग प्रशस्त करेगी। हमारी मातृभूमि की आजादी के लिए असंख्य बहादुर लोग पहले ही अपनी जान दे चुके हैं। उनकी तुलना में हम सब पूर्णिमा के सामने केवल मोमबत्तियां भर हैं।
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