सार

पितृसत्तात्मक समाज में बात अगर महिला को उसके हक की बराबरी देने की करें, तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पुरुष अधिकांश मौकों पर निर्वीर्य दिखाई देते हैं। इस बात को भी बिना संकोच स्वीकार किया जाना चाहिए कि महिला को उसके नैसर्गिक हक से वंचित करने के लिए तमाम कुतर्कों और शास्त्रों के कुपठित उल्लेखों का सहारा लिया जाता है।  
 

नेशनल डेस्क: नारी या महिला। ये शब्द जैसे ही दिमाग में कौंधता है, स्मृति पटल पर घरेलू पोशाक में लिपटी औरत जैसी छवि सबसे पहले उभरती है। बात लेखन की दुनिया की करें तो 'आधी आबादी' विशेषण का सर्वाधिक प्रयोग किया जाता है। शायद ऐसी सहज अभिव्यक्ति इंसान की प्रकृति के कारण ही होती है। अगर बात कवियों की करें तो जयशंकर प्रसाद ने 'नारी तुम केवल श्रद्धा हो...' जैसी पंक्ति लिखी। किसी लेखनी से 'नारी तू नारायणी, इस जग का आधार..' जैसा वाक्य निकला। आधुनिक युग में कैफी आजमी की कलम ने लिखा, 'उठ  मिरी  जान  मिरे  साथ  ही  चलना  है तुझे।।।' पिछले 8-10 साल की बात करें तो 'चुनर उड़ा के ध्वज बना, गगन भी कंपकपाएगा...' जैसी पंक्तियों से भी महिलाओं का आह्वान किया गया।

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महिलाओं को नैसर्गिक हक से वंचित करने के लिए दिए जाते हैं कुपढ़ कुतर्क
पितृसत्तात्मक समाज में बात अगर महिला को उसके हक की बराबरी देने की करें, तो इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पुरुष अधिकांश मौकों पर निर्वीर्य दिखाई देते हैं। इस बात को भी बिना संकोच स्वीकार किया जाना चाहिए कि महिला को उसके नैसर्गिक हक से वंचित करने के लिए तमाम कुतर्कों और शास्त्रों के कुपठित उल्लेखों का सहारा लिया जाता है।  रही बात महिलाओं की भूमिका, उनका योगदान या घर-समाज को चलाने में उनकी भागीदारी की, अधिकांश मौकों पर वीटो का प्रयोग पुरुषों को ही करते देखा जाता है। प्राकृतिक रूप से उदार हृदय महिलाएं इसका प्रतिकार नहीं करती और धीरे-धीरे यह प्रचलन सामाजिक प्रथा बन जाती है। भारत के समाज में लंबे समय से यही देखा जा रहा है कि महिला घरों को संवारने में अपना पूरा जीवन हवन कर डालती हैं। इस पर भी विडंबना ये कि अधिकांश अर्धांगिनी कभी अपनी महत्वाकांक्षा और सपने परिवार के सामने रखती ही नहीं। संभव है 'नारी परिवार का आधार' वाले दृष्टिकोण और तर्क से इस परिस्थिति पर बहुमत को आपत्ति न हो, लेकिन क्या नैसर्गिक न्याय की कसौटी पर यह ठीक होगा ? यह यक्ष प्रश्न है।

अधिकार खो कर बैठ रहना, ये महा दुष्कर्म 
इतिहास में कई ऐसे साक्ष्य मिलते हैं, जहां महिलाओं की भूमिका अतुलनीय है। हालांकि, बदलते समय के साथ ऐसी प्रेरक हस्तियां गुमनामी की अंधेरी गुफा में धकेल दी गईं। यहां यह कहना गलत नहीं होगा कि इस अक्षम्य अपराध में भागीदार महिला-पुरुष दोनों हैं। यहां 'क्राइम की थ्योरी' पर आधारित यह बहस की जा सकती है कि 'मास्टरमाइंड कौन ?' लेकिन, दोषी दोनों हैं, इसमें कोई दो राय हो ही नहीं सकती। सवाल उठता है, ऐसा कहने का आधार क्या है ? जवाब है साहित्य। संसद में प्रधानमंत्री के सामने उनकी नीतियों के मुखर आलोचना करने वाले कवि रामधारी सिंह दिनकर ने वर्षों पहले लिखा, 'अधिकार खो कर बैठ रहना, ये महा दुष्कर्म है, न्यायार्थ अपने बंधु को भी दंड देना धर्म है।' कवि दिनकर ने यह भी लिखा है-..।नहीं पाप का भागी केवल ब्याध, जो तटस्थ है समय लिखेगा उनके भी अपराध।' ये पंक्तियां समझदार को इशारा काफी जैसी हैं।बदलते समय के साथ ये देखना सुखद है कि महिलाओं की बड़ी संख्या अधिकार खो कर बैठने के लिए कतई राजी नहीं है। यह समाजिक उत्थान के लिए सबसे अनिवार्य शर्त भी है। ऐसा इसलिए क्योंकि एक शिशु के जन्म के बाद कहा जाता है कि माता पहली शिक्षक और घर पहला स्कूल होता है।

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पंखों से कुछ नहीं होता, हौसले से उड़ान होती है
यहां इस बात का उल्लेख दिलचस्प है कि समाज की जिन महिलाओं ने कामयाबी के नए प्रतिमान गढ़े हैं, उन्हें कोई विशेष सुविधाएं नहीं मिलीं। कामयाबी की इन प्रेरक कहानियों में एक कॉमन तत्व है- हौसला। किसी कवि ने इसे अपने शब्दों में व्यक्त कर लिखा- ‘…पंखों से कुछ नहीं होता, हौसले से उड़ान होती है।’

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा
भारत रत्न से अलंकृत शख्सियत मदर टेरेसा और स्वर कोकिला लता मंगेशकर की बात करें तो ऐसी हस्तियां सदी में एक बार पैदा होती हैं। अल्लामा इकबाल ने इसे कुछ यूं अभिव्यक्त किया- ‘साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा।’ राजनीति के क्षेत्र में इंदिरा गांधी, न्यायपालिका के क्षेत्र में जस्टिस अन्ना चांदी (पहली महिला जज), आनंदी गोपाल जोशी भारत की पहली महिला डॉक्टर के रूप में मशहूर हुईं। इन्होंने अमेरिका से मेडिकल की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय बनने का भी गौरव हासिल किया।

कई दिव्यांग महिलाओं ने अद्वितीय उपलब्धि हासिल की
कामयाबी की इन कहानियों के अलावा आधुनिक युग में भी कई ऐसी महिलाओं ने खुद को साबित किया है, जो परिभाषा के पैमाने पर  दिव्यांग हैं। लेकिन कहना गलत नहीं होगा कि केवल शब्द ‘डिफरेंटली एबल्ड’ के कारण इनकी उपलब्धियां सामान्य हाड़-मांस के लोगों से कमतर नहीं। इन लोगों ने खुद की ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ और मानव जीवन को सार्थक करने के संकल्प के साथ जीवन को नई परिभाषा दी। तुलसीदास रचित रामचरित मानस में लिखा गया है- ‘बड़ी भाग मानुष तन पावा…’ अर्थात 84 लाख योनियों में मनुष्य का जीवन मिलना सबसे बड़ा सौभाग्य है। कवि मैथिली शरण गुप्त ने भी इसी भाव को दूसरे शब्दों में लिखा- ‘नर हो निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो, जग में रह कर कुछ नाम करो…’

दीपाकर करमाकर, साइना नेहवाल जैसी बेटियों ने छोड़ी अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी छाप
पिछले 5-10 साल के कालखंड को देखें तो अंतरराष्ट्रीय फलक पर कई महिलाओं ने भारत ही नहीं पूरी मानवता को गौरवान्वित किया है। हरनाज कौर संधू, दीपाकर करमाकर, सायना नेहवाल, पीवी सिंधु, दीपा मलिक, अवनी लेखरा जैसी बेटियों ने साबित कर दिखाया कि बेटियां बेटों से किसी भी मायने में कम नहीं। इन लोगों ने अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ी है जिससे पीढ़ियों तक प्रेरणा मिलती रहेगी। इन्होंने न सिर्फ अपने देश का सिर ऊंचा किया, बल्कि यह सिद्ध कर दिखाया कि अबला कही गई औरत, महिला या स्त्री 'शक्तिपुंज' है।  समय के साथ हो रहे सकारात्मक बदलावों की कड़ी में प्रिया अग्रवाल भी अपनी पहचान रखती हैं। दरअसल, शादी के एक वायरल वीडियो से प्रिया ने करोड़ों लोगों के बीच अपनी पहचान कायम की। सामाजिक प्रथाओं से एकदम उलट प्रिया घोड़ी पर सवार होकर सात फेरे लेने पहुंचीं। इतना ही नहीं प्रिया अग्रवाल ने शादी के मंडप में बैठने से पहले जमकर ठुमके भी लगाए। यह शादी खूब चर्चा का विषय बनी। प्रिया का उदाहरण देखते हुए कहना गलत नहीं होगा कि परंपराओं और घर की इज्जत जैसे तर्क नि:संदेह रुढ़िवादी हैं। जिस प्रकार पुरुषों को सार्वजनिक रूप से खुद को अभिव्यक्त करने का मौका या अधिकार हासिल है, उसी तरह महिलाओं को भी समान अधिकार हासिल हैं। अगर जरूरत किसी बात की है तो यह कि बेटियों और महिलाओं को शिक्षा के वैसे ही समान अवसर मिलें जैसे बेटों को दिए जाते हैं। उन्हें खुद तय करने का पूरा अधिकार है कि उनकी पहचान क्या होगी।

यहां अगर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी का जिक्र न हो तो यह विमर्श अधूरा रह जाएगा। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी के बारे में यही कहा जा सकता है कि तमाम विषमताओं के बीच जिस तरीके से उन्होंने समाज में खुद की पहचान बनाई, कई डूबते लोगों के लिए तिनके का सहारा बनीं, उन्हें शब्दों में बयां करना इतना आसान नहीं। बस इतना की अगर 190 से अधिक देशों के संगठन- संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्था ने लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी को आमंत्रित किया, तो इसमें जीत उस संकल्प की है, जिसमें उन्होंने हार न मानने की ठानी। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि महिलाओं को उनका हक देना ही होगा। इसके लिए पुरुषों को कुपढ़ कुतर्क छोड़ने ही होंगे।

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