1890 में एक पारसी बैंकर को ऑफिस में घर का बना खाना खाने की तलब लगी। इसी सोच से जन्मा डब्बावाला सिस्टम! अब ये लाखों लोगों के लिए रोज टिफिन पहुंचाते हैं, जो जिम्मेदारी वाला काम है।
ये डब्बावाले रोज करीब 2 लाख लंच डिलीवर करते हैं। मतलब, इनकी टाइमिंग और ऑर्गनाइजेशन इतनी शानदार है कि मुंबई की भीड़ में भी हर किसी को खाना समय पर मिलता है।
डब्बावालों की सटीकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1 करोड़ 60 लाख डिलीवरी में सिर्फ 1 गलती होती है। इनकी मेहनत ने इन्हें ‘सिक्स सिग्मा’ की रेटिंग दिलाई है।
मुंबई के डब्बावालों के पास न कोई ऐप, न कोई GPS है, बस एक अनोखा कोडिंग सिस्टम है और ढेर सारे लोगों की कोशिश। ये सब मैन्युअल करते हैं, यानी मेहनत-समझदारी से बड़ी कोई टेक्नोलॉजी नहीं।
लगभग 5000 डब्बावाले अलग-अलग टीमों में काम करते हैं। हर टीम में करीब 25 लोग होते हैं, जो मिलकर अपने-अपने हिस्से का काम करते हैं। एक-दूसरे की मदद करके ये सब कुछ कर दिखाते हैं।
मुंबई की भीड़-भाड़ में डिलीवरी के लिए ये साइकिल, हाथ गाड़ी और लोकल ट्रेन का इस्तेमाल करते हैं। जो भी बाधाएं आएं, ये अपनी स्पीड और टाइमिंग को बनाए रखते हैं।
डब्बावाले सिर्फ खाना नहीं पहुंचाते, बल्कि वो मुंबई की आत्मा हैं। ये हर रोज लाखों लोगों को घर के खाने का स्वाद देते हैं, जो ऑफिस की टेबल पर पहुंचता है।
मुंबई के डब्बावाले के काम ने दुनिया के कई बड़े लोगों का दिल जीत लिया है। प्रिंस चार्ल्स से लेकर रिचर्ड ब्रैनसन तक, सब इनकी तारीफ कर चुके हैं। ये मुंबई के असली स्टार में से एक हैं।
चाहे बारिश हो या ट्रैफिक की अड़चन, डब्बावाले हर स्थिति में अपनी डिलीवरी टाइम पर पहुंचाते हैं। इनकी पंक्चुअलिटी का कोई मुकाबला नहीं।
मुंबई के डब्बावालों का तरीका इतना प्रभावशाली है कि इसे बिजनेस स्कूलों में प्रभावी लॉजिस्टिक्स मैनेजमेंट के एक उदाहरण के रूप में पढ़ाया जाता है। इनकी कहानी अद्भुत सफलता की कहानी है।